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श्री नवीन जी लीजिये गुझिया खासमखास

मावा इनमे नहीं पर ...,  भरा प्रेम अहसास१ 
मेरी राधा विरह में , आहें भरे हज़ार ...
श्याम-सलोने के बिना क्या होली त्यौहार...२ 
रंग लगा कुछ इस तरह, रंगा सकल विश्वास 
श्याम रंग से बिखरता, चारो ओर प्रकाश ३.
जलती होली में जला अपने सारे पाप
मन दर्पण को कीजिये भैया पहले साफ़ ...४.
जलती होली से निकल सिया कहें हे राम !
पावनता तो बिक चुकी अब शंका के दाम ...५ 
टेसू फूलें वृक्ष पर सरसों फूले खेत 
फागुन में फिर शेष क्यों मन की काली रेत..६ 
लगातार जलजला औ सुनामी की मार 
धन्य  -धन्य जापान तुम कभी न जाना हार ..७ 
 नवीन जी के साथ ओ.बी.ओ. के मेरे सभी मित्रों को होली की लेट लतीफ़ गुझियों की प्यार भरी भेंट ....कृपया मेरी लगातार अनुपस्थिति को नज़रंदाज़ कर अपने बड़प्पन का परिचय दीजिये और मुझे शुभ कामना भी कि मैं अपनी पत्नी को कैंसर से जल्दी  मुक्त करा सकूं
डॉ.ब्रिजेश   

 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 4, 2011 at 9:23pm

होली में पुआ खाने-खिलाने का रिवाज़ है.  आपको बताऊँ कि मुझे पुआ ताज़ा नहीं बासी अच्छा लगता है. औरों की नहीं जानता पर मुझे बासी या बसियौरा पुआ ज्यादा रुचता है.. आपकी रचना में उसी बसियौरे पुए की मिठास है.

टेसू फूलें वृक्ष पर सरसों फूले खेत 
फागुन में फिर शेष क्यों मन की काली रेत..
अच्छा प्रश्न है.. सुधी पाठक उत्तर देंगे.. आशा है.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 4, 2011 at 8:18pm

आदरणीय ब्रिजेश भईया , आपने जिस अपनापन और प्यार के साथ इस गुझिया को भेजा है, ह्रदय अभिभूत हो गया , आप तो ससमय भेजे थे किन्तु मै ही बिलम्ब कर दिया , बहुत ही अच्छा लगा आपकी रचना पढ़कर |

OBO परिवार ईश्वर से कामना करता है कि शीघ्र से शीघ्र भाभी जी स्वस्थ लाभ करे | बहुत बहुत धन्यवाद जो इतनी व्यस्तता के बावजूद हम सब से संवाद स्थापित किये |

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