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ग़ज़ल-- मैं ही फ़क़त नादान हूँ...... (मिथिलेश वामनकर)

2212---2212---2212---2212

 

देखो मुझे फिर ये कहो- क्या आज भी इंसान हूँ

क्यों इस तरह जतला रहें मैं कब कोई भगवान हूँ

 

ईमान का ऐलान हूँ तूफ़ान का फरमान हूँ

बरसों दबा के तू जिसे बैठा वही अरमान हूँ

 

दो पंछियों को पेड़ पर बैठे हुए देखा मगर

हँसते नहीं रोते नहीं ये देखकर हैरान हूँ

 

इक शख्स जो भीतर मेरे बस मौन सा बैठा हुआ

उस शख्स के किरदार से यारों बहुत हलकान हूँ

 

हर आदमी कहता यही पाया गया है आजकल

मौका नहीं तो मैं ख़ुदा मौका मिला शैतान हूँ

 

अब छोडिये उस बात को, बातें बढ़े क्या फायदा

माना चलो फाजिल तुम्ही मैं ही फ़क़त नादान हूँ

 

बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा

दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ  

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on April 26, 2015 at 7:02pm

आदरणीय विजय निकोर सर, आपकी कविता से प्रेरित इस ग़ज़ल पर आपकी सराहना मेरे लिए अमूल्य है 

हार्दिक आभार 

नमन 

Comment by vijay nikore on April 26, 2015 at 6:53pm

वाह, एक बहुत ही खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई।

आजकल ओ बी ओ पर कम आ पा रहा हूँ, अत: यह सुन्दर रचना पढ़ने से रह गई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 29, 2015 at 1:01am
आदरणीया वंदना जी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 29, 2015 at 1:00am
आदरणीय जितेंद्र जी ग़ज़ल पर मुक्तकंठ प्रशंसा पाकर अभिभूत हूँ। सराहना के लिए हार्दिक आभार।
Comment by vandana on March 28, 2015 at 6:34pm

हर आदमी कहता यही पाया गया है आजकल

मौका नहीं तो मैं ख़ुदा मौका मिला शैतान हूँ

 

अब छोडिये उस बात को, बातें बढ़े क्या फायदा

माना चलो फाजिल तुम्ही मैं ही फ़क़त नादान हूँ

बहुत खूब आदरणीय मिथिलेश जी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 27, 2015 at 11:40am

बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा

दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ ......कमाल, सर जी. बहुत खूब. अन्दर जलन सी हो रही है काश! मैं लिखता

सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 26, 2015 at 4:41pm

आदरणीय गिरिराज सर, आपके सुझाये सभी मिसरे बहुत तार्किक  है और उचित भी. आपके मार्गदर्शन से  ग़ज़ल पर पुनर्विचार करने की जरुरत महसूस हो रही है. आपने मार्गदर्शन अनुसार मिसरों को सुधार कर पुनः संशोधित करता हूँ. मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार. नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 26, 2015 at 12:11pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , गज़ल के भाव बहुत अच्छे हैं , आपको दिली बधाइयाँ । कुछ मिसरों को मै अपनी समझ से कह रहा हूँ , अगर अच्छा लगे तो स्वीकार करें -----

देखो मुझे फिर ये कहो- क्या आज भी इंसान हूँ   ------   देखो मुझे फिर ठीक से , मैं आज भी इंसान हूँ

क्यों इस तरह जतला रहें मैं कब कोई भगवान हूँ--      क्यों इस तरह ज़तला रहे , जैसे कोई भगवान हूँ

दो पंछियों को पेड़ पर बैठे हुए देखा मगर

हँसते नहीं रोते नहीं ये देखकर हैरान हूँ   ------          हँसते नहीं रोते नहीं ,     चुप देखकर हैरान हूँ  

इक शख्स जो भीतर मेरे बस मौन सा बैठा हुआ   ---- इक शख्स है भीतर मेरे जो मौन है बैठा हुआ

मौका नहीं तो मैं ख़ुदा मौका मिला शैतान------        मौका नहीं तो आदमी , मौक़ा मिला शैतान हूँ 

बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा  ------  बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर हावी रहा

दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ  ----    दीवार दर भी था कभी, अब देख लो दालान हूँ  

आदरणीय मिथिलेश भाई , अगर सही न लगे तो ख़ाली दिमाग़ की शैतानी समझ छोड़ देना ॥

 

   

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 26, 2015 at 11:03am
आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी सराहना के लिए हार्दिक आभार।
Comment by Hari Prakash Dubey on March 26, 2015 at 10:10am

आदरणीय मिथिलेश  भाई लाजवाब ग़ज़ल है ,

अब छोडिये उस बात को, बातें बढ़े क्या फायदा

माना चलो फाजिल तुम्ही मैं ही फ़क़त नादान हूँ

 

बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा

दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ  ....शानदार , बहुत बहुत बधाई ! सादर 

 

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