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जेल से रिहा होकर बहुत प्रसन्न था वो , कदम उसके उत्साह का साथ नहीं दे पा रहे थे | बस मन में एक ही इच्छा , कितनी जल्दी पहुंचे अपने घर , अपनों के बीच | भागते हुए अपने मोहल्ले में घुसा , नुक्कड़ की दुकान वाले चाचा ने जैसे अनदेखा कर दिया | उसे थोड़ा अजीब तो लगा लेकिन जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए वो घर की ओर लपका | अचानक उसके कान में आवाज़ आई " किसने सोचा था कि ये भी इसमें शामिल हो सकता है , कितना मासूम चेहरा और ऐसी नापाक हरक़त "|
शक के बिना पर उसकी गिरफ्तारी हुई थी , वज़ह थी उसके कुछ दोस्त जो सामाजिक और धार्मिक भेदभाव के विरोध में आवाज़ उठाते थे और कभी कभी देर रात तक उनकी बैठक चलती थी उसके घर | अदालत ने तो बरी कर दिया लेकिन समाज़ की सवालिया नज़रें उसका पीछा नहीं छोड़ रही थीं | जहाँ जाता , लोग पीठ पीछे कुछ न कुछ कह देते |
माँ उसके मन में चल रहे विचारों के झंझावात को समझ गयी | उसने प्यार से उसको समझाया " बाहरी जख्म तो भर जाते हैं लेकिन अंदरुनी जख्मों को भरने में समय लगता है | थोड़ा समय लगेगा और समाज़ भी तुम्हे रिहाई दे देगा "| उसने माँ की गोद में सर रखा और उसके मन की पीड़ा बह निकली |

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 7:31pm

आदरणीय विनय जी कथ्य के मर्म को बड़ी बारीकी से अभिव्यक्त करती लघुकथा के लिए बधाई 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2015 at 5:11pm

आदरणीय विनय जी इस शानदार मर्मस्पर्शी रचना के लिए तहे दिल बधाई सादर 

Comment by विनय कुमार on March 25, 2015 at 12:14pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी , आपने कहानी के मर्म को समझा | 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 25, 2015 at 10:30am

मर्म को छू जाती है आपकी लघुकथा. अक्सर इंसान के जीवन में आये ऐसे पल बड़े तकलीफ देय होते है. सत्य की तो सदा ही जीत होती है और धीरे -धीरे यह  बुरा दौर गुजर भी जाता है. एक प्रभावशाली लघुकथा आदरणीय विनय जी, जो अपना पूर्ण असर छोड़ रही है. बहुत-बहुत बधाई 

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