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ग़ज़ल -- हमसफ़र निकलते हैं .. (बराए इस्लाह)

212-1222-212-1222

ख़्वाब मेरी आँखों से रात भर निकलते हैं
रहगुज़र नहीं आसाँ बा ख़बर निकलते हैं

बेचने ज़मीर अपना हम चले हैं गलियों में
देखो खिड़कियों से अब कितने सर निकलते हैं

नातवाँ बहादुर को दे रहा चुनौती है
चींटियों के भी अब तो बाल-ओ-पर निकलते हैं

दिल हमारा आईना आप हैं खरे पत्थर
बज़्म आपकी और हम टूट कर निकलते हैं

मैक़दे कहाँ करते, फ़र्क रिन्दो-वाइज़ का
जो भी पीते हैं मदिरा झूम कर निकलते हैं

बिन किसी विभीषण के ढहती है कहाँ लंका
साज़िशों में कुछ अपने मोतबर निकलते हैं

आख़िरत में क्या होगा हम अभी से क्यूँ सोचें
सोच कर यही घर से हमसफ़र निकलते हैं

ये ग़ज़ल मुरस्सा हो चाहता था मैं लेकिन
जल्दबाज़ी में मुझसे कब गुहर निकलते हैं

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मौलिक व अप्रकाशित © दिनेश कुमार
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Comment

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Comment by दिनेश कुमार on March 23, 2015 at 7:05pm
ओह, तो यह बात थी। मैं सुधार कर लूंगा।
भाई मिथिलेश जी १ फीसदी doubt मुझे अब भी है, उसे भी दूर कीजिए। मैंने कहीं पढ़ा था कि इस तरह की बह्र में हर मिसरे के दो पार्ट होते हैं। हर पार्ट अपने में complete होना चाहिए। e.g ग़ालिब के शे'र में मन्ज़ूर तक एक पार्ट है। तब क्या मन्ज़ूर के र को मिसरे के दूसरे पार्ट में गिनना जायज़ है। सादर भाई मिथिलेश जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 23, 2015 at 6:39pm
दिनेश भाई इसे यूं पढ़िए
आज ही हुआ मंजूरूनको इम्तहाँ अपना
Comment by दिनेश कुमार on March 23, 2015 at 6:14pm
आदरणीय भाई मिथिलेश जी, आप ने ग़ज़ल सराही, अच्छा लगा। हार्दिक आभार भाई।
अब बह्र की बाबत, हो सकता है मतला और मैकदे वाले ये दोनों अशआर बह्र से ख़ारिज़ हों। जल्द ही कोशिश करूँगा कि इनमें संशोधन कर दूँ।
लेकिन इसी बह्र में ग़ालिब का यह शे'र भी देखिए भाई --
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
आज ही हुआ मन्ज़ूर उनको इम्तहाँ अपना
यहाँ मन्ज़ूर का र मात्रा गणना में छोड़ना पड़ रहा है। सादर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 23, 2015 at 1:51pm

तकनीकी पक्ष को गुनीजन समझे पर मुझे आपकी गजल बहुत अच्छी लगी

सादर. दिनेश भाई . .

Comment by Shyam Narain Verma on March 23, 2015 at 1:11pm
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर
Comment by MUKESH SRIVASTAVA on March 23, 2015 at 11:56am

 बिन किसी विभीषण के ढहती है कहाँ लंका
साज़िशों में कुछ अपने मोतबर निकलते हैं - KHOOBSOORAT GAZAL - BADHAEE BHAEE

Comment by Nidhi Agrawal on March 23, 2015 at 11:45am

बहुत ही बढियां ग़ज़ल 


दिल हमारा आईना आप हैं खरे पत्थर
बज़्म आपकी और हम टूट कर निकलते हैं

आह क्या कहा है .. दिल चीर डाला इस शेर ने 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 23, 2015 at 9:01am

आदरणीय दिनेश भाई,  इस सुन्दर बह्र में आपकी आहंगखेज ग़ज़ल पढ़कर आनंद आ गया. मतले में अशआर लय में बाधा उत्पन्न नहीं कर रहा है फिर भी मात्रा गिराना मुझे उचित नहीं लग रहा. विशेष रूप से इस बह्र में संभवतः फाइलुन - मुफाईलुन की आवृत्ति में ऐसे लफ़्ज़ों की कमी नहीं है कि मात्रा गिरानी पड़े. मैं भी आदरणीय शिज्जु भाई से सहमत हूँ . वाइज वाले  शेर में भी उला में भेद शब्द बह्र से बाहर जा रहा है 

वाइज वाला शेर मेरे हिसाब से कहन के स्तर पर ठीक है, जैसे ग़ालिब चचा का ये शेर देखें -

कहाँ मयखाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज 

पर इतना जानते है कल वो जाता था कि हम निकले 

ग़ज़ल उम्दा और बेहतरीन हुई है दिल से दाद हाज़िर है 

Comment by दिनेश कुमार on March 23, 2015 at 7:44am
आदरणीय शिज्जू भाई जी, वाइज़ की जगह ज़ाहिद या फिर सूफ़ी चल सकता है?
बह्र की बाबत ग़ालिब का एक शे'र यह भी है कि
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
आज ही हुआ मन्ज़ूर उनको इम्तहाँ अपना...
सादर। बड़े भाई।
Comment by Hari Prakash Dubey on March 23, 2015 at 12:04am

सुन्दर ग़ज़ल दिनेश भाई , बाकी तकनीकी पक्ष का मुझे ज्ञान नहीं है , शिज्जू  सर ने कह ही दिया है 

दिल हमारा आईना आप हैं खरे पत्थर
बज़्म आपकी और हम टूट कर निकलते हैं....सुन्दर रचना ,बधाई आपको सादर !

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