212 212 212 212
कैसे कमसिन उमरिया जवां हो गयी
दिल से दिल की मुहोबत बयां हो गयी
ख्वाब आँखों से अब मत चुराना कभी
नींद सपनों पे जब मेहरबां हो गयी
फूल बन के खिली गुलबदन ये कली
आरजू फिर महक की जवां हो गयी
प्यार की बात हमने छुपाई बहुत
लोग सुनते रहे दासतां हो गयी
होंठ जबसे मिले होंठ ही सिल गए
कैसे चंचल जुबां बेजुबां हो गयी
दोस्त आगोश में आशना ऐ “निधी”
आज मन की जमीं आसमां हो गयी
निधि
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
मरे कहने का आशय यही था, आदरणीया निधिजी.
साहित्यिक मंचों तथा पॉपुलर सोशल साइट्स पर रचना प्रस्तुत करने में यही फ़र्क़ है,आदरणीया.
सादर
आदरणीय सौरभ जी .. मैंने तो गूगल टाइप का इस्तेमाल किया था श्रृंगार की स्पेल्लिंग लिखने पर दोनों शब्द आये मैंने ये चुन लिया ..दोनों शब्द चलन में है .. मुझे नहीं पता था की हिंदी डिक्शनरी में ऐसा शब्द नहीं है ..माफ़ी चाहूंगी
मेरे विन्दु अनुत्तरित हैं
शब्दों की अक्षरियों के प्रति तथा उनके उच्चारण के प्रति तनिक सचेत रहना आवश्यक है.
रचना पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
आदरणीया निधि जी , बढिया गज़ल हुई है , बहुत सुनद भाव हैं । आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
आदरणीया राजेश कुमारी जी.. आदरणीय मिथिलेश जी बहुत बहुत धन्यवाद्
अजनबी तुमने देखा मुझे इस तरह .. ही सही लगता है अभी सही कर के फिर से पोस्ट करती हूँ
धन्यवाद मिथिलेश जी
अजनबी तुमने देखा मुझे इस तरह -----कर लीजिये मिथिलेश जी ने सही फरमाया
यदि मुझे अपनी किसी ग़ज़ल में यही शब्द मेह्रबां डालना पड़े तो मात्राएँ क्या होनी चाहिए इसी लिए मैं अपना भी मार्गदर्शन गुनीजनों से चाहती हूँ
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