अपने कोकून को
तोड़ दिया है मैंने अब
जिसमे कैद था, मैं एक वक़्त से
और समेट लिया था अपने आप को
इस काराग्रह में ,एक बंदी की तरह !
निकल आया हूँ बाहर , उड़ने की चाह लिए
अब बस कुछ ही दिनों में, पंख भी निकल आयेंगे
उड़ जाऊंगा दूर गगन में कहीं , इससे पहले की लोग
मुझे फिर से ना उबाल डालें , एक रेशम का धागा बनाने के लिए
और उस धागे से अपनी , सतरंगी साड़ियाँ और धोतियाँ बनाने के लिए !!
© हरि प्रकाश दुबे
“मौलिक व अप्रकाशित “
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से आत्मिक प्रसन्नता हुई, हार्दिक आभार ! सादर
वाह ! आदरणीय हरि प्रकाश भी , नये बिम्ब से बढिया बात कही है , हार्दिक बधाई ।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, आपकी प्रतिक्रिया से बहुत उत्साह मिला आपका बहुत - बहुत धन्यवाद ! सादर
आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी , सुन्दर भावाभिव्यक्ति के लिए बहुत बहुत बधाई |
आदरणीय खुर्शीद साहब, रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार, अभिनन्दन ! सादर ,
सोमेश भाई ,आपकी शुभकामनाओं के लिए आपका ह्रदय से आभार ! सादर
भाई कृष्ण मिश्र जी,रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार !
आदरणीय शिज्जु "शकूर" साहब , इस रचना पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार ! सादर
उड़ जाऊंगा दूर गगन में कहीं , इससे पहले की लोग
मुझे फिर से ना उबाल डालें , एक रेशम का धागा बनाने के लिए
और उस धागे से अपनी , सतरंगी साड़ियाँ और धोतियाँ बनाने के लिए !!
आदरणीय हरिप्रकाश जी ,सादर अभिन्दन इतनी सुन्दर भावाभिव्यक्ति के लिए बहुत बहुत बधाई |
कोकून से बाहर आने पर बधाई भाई जी ,उम्मीद है कि अपने परों को पा लेने पर आप लम्बी उड़ान भरेंगे और आपके रेशमी मनोभावों में लिपट सारा साहित्य जगत एक विशेष अनुभूति करेगा |
सादर आपका अनुज
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