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ग़ज़ल - छग्गन तेरी फसलें....(मिथिलेश वामनकर)

22--22—22--22--22—2

 

दिल्ली से जो बासी रोटी आई है

अपने हिस्से में केवल चौथाई है

 

बातें क्या है, बातें बस चतुराई हैं

बातों में देखो कितनी गहराई है

 

मंहगाई की डायन कैसे भागेगी ?

तुमने भी तो चिल्लर से झड़वाई है

 

उम्मीदें क्या लोगों से करते, जिनके

आँखों में डर,  होठों पे तुरपाई है  

 

अफसर दौरे पे अक्सर कह जाते हैं

छग्गन तेरी खेती तो हरियाई है

 

अब के गाँवों में जाओ गर, तो देखो 

क्या रिश्तों में पहले-सी गरमाई है

 

आज सफलता के अंधे क्या समझेंगे

शुष्क नयन की ममता क्यूँ पथराई है

 

आईनों ने जब भी ठाना है अक्सर

दीवारों की हड्डी तक चटकाई है

 

झूठी है बाबुल के आँगन की मस्ती  

सहमी डोली, सहमी सी शहनाई है

 

अब तो काबिल कहलाता है, केवल वो

इज्जत जिसने दौलत से तुलवाई है

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by umesh katara on March 3, 2015 at 9:22pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी वाह सुन्दर गजल कही है


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:30pm

आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव  सर, ग़ज़ल पर स्नेह, सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ...नमन  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:28pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, सर्वप्रथम ग़ज़ल पर सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ. आपके  समीक्षात्मक मार्गदर्शन ने और रचना  पर आपकी उपस्थिति ने रचना का मान बढ़ा दिया. आप जैसे सुलझे हुए शायर से ग़ज़ल पर सकारात्मक टीप पाकर धन्य हुआ.

आपने जो त्रुटियाँ बताई है, वो हुई है, इस लापरवाही के लिए शर्मिंदा भी हूँ. आपने जो मार्गदर्शन किया है उसके आधार पर त्रुटियों को सुधारता हूँ. साथ ही \आँखें क्यूँ पथराई हैं \वाला मिसरा पूरा बदलता हूँ . वाकई में गंभीर अशुद्धियाँ हुई है इस ग़ज़ल में. आगे से इसकी सावधानियां रखूंगा. ग़ज़ल पर विस्तृत मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:18pm

आदरणीय श्याम नरैन वर्मा जी ग़ज़ल पर स्नेह, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:17pm

आदरणीय महर्षि भाई जी ग़ज़ल पर स्नेह, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:17pm

आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी ग़ज़ल पर स्नेह, सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ...धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:16pm

आदरणीय सोमेश भाई जी ग़ज़ल पर स्नेह, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:14pm

आदरणीय गिरिराज सर, आपके स्नेह और सराहना के लिए ह्रदय से आभारी हूँ. 

आपकी मार्गदर्शन और त्रुटी की ओर संकेत करती प्रतिक्रिया सुबह ऑफिस जाते समय देखि थी तब ही पूरी गलती समझ आ गई थी लेकिन समयाभाव के कारण तब प्रतिक्रिया नहीं दे पाया और पूरा दिन आपके संकेत के विषय में सोचता रहा- कहीं वचन दोष तो नहीं है , एक बार सोच लीजियेगा ॥ --- वचन दोष बहुत जम के हुआ था और लगातार इसके समाधान के लिए सोच रहा था मगर व्यस्ताओं ने समाधान तक पहुँचाने का अवसर ही नहीं दिया. पूरी ग़ज़ल में वचन त्रुटी को सुधारना होगा. सच कहूं तो आपके संकेत से मैं सन्न सा रह गया, क्योकि यही त्रुटी मुशायरे में भी हुई थी. इसे सुधारने का प्रयास करता हूँ. आपका संकेत मात्र ही मुझे गहरे तक प्रभावित करता है. इतनी त्रुटियों के बावजूद आपने स्नेह देकर रचना का मान बढ़ा दिया.. आपका हार्दिक आभार नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:06pm

आदरणीय विजय शंकर सर, ग़ज़ल पर आपकी विस्तृत और मुक्तकंठ प्रशंसा पाकर आनंदित हूँ ... आपकी सकारात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से सदैव रचनाकर्म को बल मिलता है. हार्दिक आभार .. नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:04pm

आदरणीया राजेश दीदी  ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया, स्नेह और सराहना  पाकर अभिभूत हूँ. आपकी मुक्तकंठ प्रशंसा से बस झूम गया हूँ. हार्दिक आभार, नमन 

आपने तकाबुले रदीफ़ दोष के सम्बन्ध में जो मार्गदर्शन किया है, त्रुटी को सुधारने का प्रयास करता हूँ. सादर 

नमन 

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