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एक मुट्ठी गालियाँ...... (मिथिलेश वामनकर)

2122—2122—2122—212

 

रात  भर  संघर्ष  कर  जब  थक  गई ये  आँधियाँ

एक दस्तक दी हवा ने, खुल  गई सब  खिड़कियाँ

 

जो गया ,  जाना उसे  था , कौन  जो  ठहरा  बता

बैठ कर  लिखते   रहोगे  मर्सिया  कब तक मियाँ

 

तीर  बूँदों  के  भला ,  क्या  आपको  आये  मज़ा

भीग  जाने   का  हुनर  तो  जानती  है  छतरियाँ

 

तीरगी  से  क्यूँ   लबालब   है  मरासिम  याखुदा

रौशनी  भी  कैसे   आये   आज  उनके  दरमियाँ

 

ज़ेब  में  है वज्न  कितना ,  ये  जमाना   देखता

फूल कितना खिल गया है, देखती  है  तितलियाँ

 

सौंपकर  अपना खज़ाना  ज़िन्दगी ये क्या किया

इक चिमुट भर दी दुआ फिर एक मुट्ठी गालियाँ

 

ऐ  समन्दर  बोल  तो , ये  है  भला  कैसी  सज़ा

किस तरह  मुमकिन बता बैठे किनारे मछलियाँ

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 5, 2015 at 8:38pm
आदरणीय खुर्शीद सर, ग़ज़ल पर आपका अनुमोदन पाकर धन्य हुआ। हार्दिक आभार।
Comment by Hari Prakash Dubey on February 5, 2015 at 3:41pm

"बहुत ही सशक्त रचना है आदरणीय मिथिलेश भाई”

जो गया ,  जाना उसे  था , कौन  जो  ठहरा  बता

बैठ कर  लिखते   रहोगे  मर्सिया  कब तक मियाँ.......शानदार , हार्दिक बधाई आपको !

Comment by Samar kabeer on February 5, 2015 at 2:06pm
जनाब मिथिलेश वामन्कर जी,आदाब,आप की फ़नकारी का मै क़ाइल हो गया,बहुत ख़ूब|
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 5, 2015 at 1:02pm

आ० भाई मिथिलेश जी , इस उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई l

Comment by khursheed khairadi on February 5, 2015 at 11:28am

तीरगी  से  क्यूँ   लबालब   है  मरासिम  याखुदा

रौशनी  भी  कैसे   आये   आज  उनके  दरमियाँ

 

ज़ेब  में  है वज्न  कितना ,  ये  जमाना   देखता

फूल कितना खिल गया है, देखती  है  तितलियाँ

 आदरणीय मिथिलेश जी उम्दा ग़ज़ल हुई है , चिमटी भर दुआ और मुट्ठी भर गलियाँ  नये प्रतीक है (ग़ज़ल में )ढेरों दाद कबूल  फरमावें |सादर अभिनन्दन |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 4, 2015 at 11:52pm

जो गया ,  जाना उसे  था , कौन  जो  ठहरा  बता

बैठ कर  लिखते   रहोगे  मर्सिया कब  तक मियाँ

आदरणीय समर कबीर जी के मार्गदर्शन पश्चात् शेर में संशोधन किया है . कृपया शेर उपरोक्तानुसार पढने का कष्ट करें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 4, 2015 at 11:33pm
बिलकुल सही कहा आदरणीय कबीर साहब त्रुटी हुई है। सुधारता हूँ मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार। सराहना के लिए धन्यवाद ।
Comment by Samar kabeer on February 4, 2015 at 11:23pm
जनाब मिथिलेश वमंकर जी ,आदाब,एक सुंदर प्रस्तुति के लिये तहे दिल से मुबारकबाद पेश करता हूँ,इस मिसरे की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा , "बैठ कर लिखते रहोगे कब तलक यूं मर्सियाँ" सही लफ़्ज़ "मर्सियाँ" नहीं मर्सिया है|

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 4, 2015 at 11:15pm
आदरणीय सूबे सिंह जी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार।
Comment by सूबे सिंह सुजान on February 4, 2015 at 10:52pm
मिथिलेश जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है बधाई...
ज़ेब में है वज्न कितना , ये जमाना देखता
फूल कितना खिल गया है, देखती है तितलियाँ

सौंपकर अपना खज़ाना ज़िन्दगी ये क्या किया
इक चिमुट भर दी दुआ फिर एक मुट्ठी गालियाँ

ऐ समन्दर बोल तो , ये है भला कैसी सज़ा
किस तरह मुमकिन बता बैठे किनारे मछलियाँ............

वाह वाह वाह

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