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प्यार माथे का पसीना पोछ दे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२   २१२२२ २१२

*********************

हो गया  है  सत्य  भी मुँहचौर  क्या
या  दिया हमने ही उसको कौर क्या

****
कालिखें  पगपग  बिछी  हैं निर्धनी
तब  बताओ  भाग्य होगा गौर क्या

****
मार  डालेगा  मनुजता  को  अभी
जाति धर्मो का उठा यह झौर क्या

****
हैं  परेशाँ   आप   भी   मेरी   तरह
धूल पग की हो गयी सिरमौर क्या

****
फूँक  दे  यूँ  शूल  जिनके घाव को
मायने  रखता है  उनको धौर क्या

****
प्यार  माथे  का  पसीना  पोछ दे
राहतें  इससे  बड़ी  हों  और क्या

****
आज इस पथ पाँव कल को फिर कहीं
इक ‘मुसाफिर‘  आदमी  का  ठौर क्या

****

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:30am

आदरणीय भाई  दिनेश जी , गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:25am

आदरणीय भाई गिरिराज जी गजल की प्रशंसा के लिए बहुत बहुत आभार । आप और भाई गणेश जी आपनी जगह बिलकुल सही हैं । मुंहचौर शब्द का प्रयोग प्रायः देखने को नहीं मिलता । इस अप्रचलित शब्द का प्रयोग यहां संकोची स्वभाव के लिए किया गया है । हिंदी भार्गव शब्दकोषानुसार भी इसका अर्थ यही है । जबकि मुंहचोर शब्द का प्रयोग जहां तक मेरा ज्ञान है, गलत कार्य कर मुंहछिपाते फिरने से और मुंहजोर का अर्थ दबंग बोल्ड प्रक्रिति से  है । शेष आप सभी प्रबुद्धजनों से मार्गदर्शन की आकांक्षा है । शुभ ... शुभ.......






Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:23am

 आदरणीय भाई गणेश जी, आपकी उपस्थिति से गजल का मान बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद । आपने सही फरमाया मुंहचैर शब्द का प्रयोग प्रायः देखने को नहीं मिलता । इस अप्रचलित शब्द ( मुंहचौर ) का प्रयोग यहां संकोची स्वभाव के लिए किया गया है । हिंदी भार्गव शब्दकोषानुसार भी इसका अर्थ यही है । जबकि मुंहचोर शब्द का प्रयोग जहां तक मेरा ज्ञान है, गलत कार्य कर मुंह छिपाते फिरने से है । शेष आप प्रबुद्धजनों से मार्गदर्शन की आकांक्षा है ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:21am

आदरणीय भाई अजय जी उत्साहवर्धन के लिए आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:21am

आदरणीय भाई मिथिलेश जी गजल पर शेर दर शेर प्रतिक्रिया देने  के लिए हार्दिक धन्यवाद । स्नेह बनाए रखें....

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:20am

आदरणीय भाई विजय शंकर जी आपका स्नेह पाकर धन्य हुआ .... आभार ....

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:20am

आदरणीय भाई हरिप्रकाश जी , प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:20am

आदरणीय भाई आशुतोष जी, नये काफिये को स्वीकार्यता प्रदान करने के लिए आभार । इस बह्र को २१२२   २१२२  २२१२ पढंे़ ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:19am

आदरणीय भाई गोपाल नारायन जी गजल का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन के लिए कोटि कोटि धन्यवाद ।

Comment by Krishnasingh Pela on January 21, 2015 at 11:00pm
दूसरा शेर कुछ नयाँ अर्थ लिए हुए है । पहली बात तो निर्धनता को कालिख से तुलना की गयी है जो कि प्राय:बदनामी को इंगित करने के लिए प्रयुक्त होता है । दूसरी बात :'अक्सर यह कहा जाता है कि भाग्य में ही निर्धनता हो तो ...' पर आपने कहा है कि निर्धनता जब है तो भाग्य भी क्या करे ! वास्तव में यह कथन भाग्यवाद का निषेध करता है ।
कुछ कम प्रचलित शब्द जैसे 'धौर' (सफेद परेवा) 'झौर'(झगड़ा) आदि को
काफिया में प्रयोग करने के कारण कुछ जटिलता आ गयी है । मुँहचौर में चौर शब्द का अर्थ चोर तो होता है ।
जैसे 'न चौर हार्यम् न च राज हार्यम्...'। फिर भी चोर
के विकल्प में चौर कम ही (सायद ही) प्रयोग करते देखा
गया है । वैसे मैं इस बात के पक्ष में हूँ कि लेखक कुछ अपने प्रयोग कर सकता है । परंतु इस बात का ख़याल जरूर रखा जाना चाहिए कि उस प्रयोग से अभिव्यक्ति का सौन्दर्यवर्द्धन किस हद तक हुआ है ।
शेष चौथा, छठा और सातवाँ, ये शेर बढिया बने हैं । हार्दिक बधाइ कबूलें आ. लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर ' जी !

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