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संक्रमित संस्कृति बनाम प्रदूषण

संक्रमित संस्कृति हमारी, सभ्यता गतिमान है |

सद्कथाएँ मिथ न हों इसका हमे ना भान है |

पर्यावरण दूषित हुआ यह क्या नही प्रमाण है ?

लुप्तप्राय कुछ जंतु जिसमें गरुण का अवसान है |

 

अंधानुकर विज्ञान का यह क्या हमारी भूल है ?

उस कृत्य से वंचित हुए हम जो जीवन का मूल है ?

सारा जहाँ ही देखिये जिस कृत्य में मसगूल है,

भौतिकता की चाह में सर्वत्र चुभता शूल है |

 

कल्पतरु मेरी ये वसुधा अनगिनत उपहार देती,

थोड़ा भी यदि श्रम करें प्रतिफल हमे आहार देती |

कृषि-श्रेष्ठ ये भारत हमारा, मृदा भी उर्वर हमारी |

उपयोग अति रासायनिक खाद दे जाती बिमारी |

 

जल प्रदूषण, वायु दूषण, मृदा एवं ध्वनि प्रदूषण,

इन सभी से भी अधिक है व्याप्त वैचारिक प्रदूषण |

क्या हम कभी संकल्प ले सकते हैं इस परिप्रेक्ष्य में,

दूषण रहित निज कर्म, संततियाँ फलें सापेक्ष्य में ?

 

हे श्रेष्ठकृति विद्वज्जनों! मिलकर सभी विचार कर लें |

मिथ दम्भ भरना छोड़के, कर्तव्य का आचार कर लें |

मन वचन केवल न, हो निज कर्म भी द्रुत दामिनी सी,

दूसरों को छोड़ पहले स्वयं में संचार कर लें |

(संसोधित)

++++++++++++++++++++++++++++

शरद सिंह “विनोद”

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 29, 2014 at 10:30pm

अच्छी भावाभिव्यक्ति....... बधाई 

आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर की बात पर विचार जरुर करेंगे, ऐसा विश्वास है. सादर ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 29, 2014 at 10:22pm

आदरणीय विनोद जी अच्छी भावाभिव्यक्ति है बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 29, 2014 at 7:57pm
एक सार्थक प्रयास, कुछ अलग सा , सराहनीय। टाईप की त्रुटि रह गयी. बधाई , आदरणीय शरद सिंह 'विनोद ' जी।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2014 at 7:55pm

इस कविता में गीतिका और हरिगीतिका की झलक है अगर उस मीटर पर इसे रचा जय तो रचना बहुत खूबसूरत होगी i  सस्नेह i

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