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कोई कारवां भी दिखा नही / ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

11212 x 4  ( बह्र-ए-क़ामिल में पहला प्रयास) 

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न वो रात है, न वो बात है, कहीं ज़िन्दगी की सदा नहीं   

न उसे पता, न मुझे पता, ये सिफत किसी को अता नहीं

 

वो खुशी कभी तो मिली नहीं, मेरी किस्मतों में रही कहाँ

कोई दश्त जिसमे नदी न हो, हूँ शज़र कभी जो फला नहीं

 

ये जमीं कहे किसे दास्तां वो जो बादलों से हुई खता

ये दरख़्त कितने डरे हुए कहीं बारिशों की दुआ नही

 

जो तलाश थी मेरी आरज़ू, जो पयाम था मेरी तिश्नगी

कोई फूल सा भी हंसा नहीं, कोई पंछियों सा उड़ा नहीं

 

वो जो तीरगी में चराग है, वो हयात है उसे थाम ले

ये अज़ाब गम का नसीब है इसे रोक ले वो बना नहीं

 

कोई हमनवां न तो हमसफ़र कि सदा सुने जो फिराक़ में

वो जो चल पड़ा तो अकेला था कोई कारवां भी दिखा नही

 

 

------------------------------------------------------------------

 (मौलिक व अप्रकाशित)         © मिथिलेश वामनकर 

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बह्र-ए-क़ामिल मुसम्मन सालिम

अर्कान –   मुतफ़ाइलुन / मुतफ़ाइलुन / मुतफ़ाइलुन / मुतफ़ाइलुन

वज़्न –    11212 / 11212 / 11212 / 11212 

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 23, 2014 at 10:04pm
आदरणीय गिरिराज सर और आदरणीय शिज्जु सर बिलकुल सही त्रुटियाँ बताई है आप लोगो ने। ग़ज़ल का मतला बदलना पड़ेगा और कुछ अशआर में मात्रा ठीक करनी होगी। काफ़िया निर्धारण सिरे से ठीक करना होगा। आप लोग इतनी बारीकी और इतनी शिद्दत से रचना को पढ़ते है कि आपकी मेहनत से खोजी गलतियां ठीक करना दायित्व बन जाता है। इस स्नेह के लिए बहुत बहुत आभार। हार्दिक धन्यवाद। नमन। मैं इन्हें सुधारने का प्रयास करता हूँ। इस संशोधन में थोड़ा समय लगेगा क्योकि बड़ा बदलाव करना है। बहर के स्तर पर भी और काफ़िया निर्धारण के स्तर पर भी मेहनत करनी है। इस मंच ने आप लोगो जैसे गुणीजनों को हम जैसे नौसीखियों के लिए वरदान की तरह बना दिया है। नमन आप लोगो को।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 23, 2014 at 9:27pm

आदरणीय मिथिलेश जी ये मिसरा भी बेबह्र हुआ जा रहा है
ये ग़मों की जो / बहती नदी /  इसे रोक ले / तेरा बस नही
11212/ 2212/ 11212/ 11212


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 23, 2014 at 8:48pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , अगर सही लगे तो आप ऐसे कह सलते हैं

हैं दरख़्त सारे डरे हुये , कहीं बारिशों का पता नहीं  , या बारिशों की दुआ नहीं 

यहाँ एक बात और भूल गया था कहने , काफिया निर्धारण में भी गलती है --  मेरे खयाल से   -- चाँदनी , ज़िन्दगी  के साथ नहीं काफिया गलत हो जायेगा , आपने नहीं को नही  लिख दिया है सही वर्तनी नहीं है  आप फिर भी आ. योगराज भाई , आ. सौरभ भाई या आ. बागी से  पूछ लीजियेगा  या सभी अश आर मे नहीं कर लीजियेगा ।

Comment by somesh kumar on December 23, 2014 at 8:29pm

तुझे क्या लिखूँ  तुझे क्या कहूँ तू शायरी का चिराग है 

sunder abhiyvkti hai bhai 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 23, 2014 at 7:23pm
आदरणीय गिरिराज सर "ये दरख़्त है सहमे हुए" में 11212 -2212 मात्रा हुई है उसे सुधारने का प्रयास कर रहा हूँ, आप कुछ सुझाये तो कृपा होगी। सादर।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 23, 2014 at 6:53pm
आदरणीय गुमनाम सर आपको प्रयास पसंद आया लिखना सार्थक हुआ। नए प्रयास की प्रशंसा, सराहना और , इस उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार । बहुत बहुत धन्यवाद।
Comment by gumnaam pithoragarhi on December 23, 2014 at 6:45pm

वाह कमाल ग़ज़ल कही है सर ,,,,,,,,,,,,,


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 23, 2014 at 6:03pm
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी आपको प्रयास पसंद आया लिखना सार्थक हुआ। आपका हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 23, 2014 at 5:55pm
आदरणीय अनुराग सिंह जी बहुत बहुत आभार हार्दिक धन्यवाद
Comment by Hari Prakash Dubey on December 23, 2014 at 5:51pm

आ. मिथिलेश वामनकर  जी बहुत सुदर ,हार्दिक बधाई!

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