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हुकूमत हाथ में आते, नशा तो छा ही जाता है,

अगर भाषा नहीं बदली, तो कैसे याद रक्खोगे.

किये थे वादे हमने जो, मुझे भी याद है वो सब,

मनाया जश्न जो कुछ दिन, उसे तो याद रक्खोगे.

मुझे दिल्ली नहीं दिखती, समूचा देश दिखता है,   

बिके हैं लोग जैसे भी, उसे तुम याद रक्खोगे.

अगर तुम चैन पा लोगे, मुझे तुम भूल जाओगे,

बढ़ेगी प्यास जब तेरी, तभी तो याद रक्खोगे.  

वे नादां लोग होते हैं, अमन की चाह रखते हैं,

लुटेगा चमन जब तेरा, तभी तो याद रक्खोगे.

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

जवाहर लाल सिंह 

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 23, 2014 at 8:09pm

आदरणीय श्री हरिप्रकाश दुबे जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 23, 2014 at 8:09pm

प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय श्री विजय निकोर जी!

Comment by Hari Prakash Dubey on December 23, 2014 at 6:12pm

 आदरणीय  जवाहरलाल  जी सुन्दर प्रस्तुति  ,हार्दिक बधाई आपको !

Comment by vijay nikore on December 23, 2014 at 4:00pm

बहुत ही सुन्दर भाव हैं। हार्दिक बधाई।

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 23, 2014 at 12:03pm

हार्दिक आभार आदरणीय सोमेश कुमार जी!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 23, 2014 at 12:03pm

आदरणीय शिज्जू शकूर साहब, सादर अभिवादन! आपलोगों के परामर्श, मार्गदर्शन और अद्धययन से सुधार होगा ऐसा सोचता हूँ.

Comment by somesh kumar on December 23, 2014 at 12:35am

सुंदर ,सुधार करें और आगे बढ़ें 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 22, 2014 at 7:59pm

आदरणीय जवाहर लाल जी रचना तो अच्छी है उसके लिये बधाई स्वीकार करें। लेकिन इसे मैं एक मुकम्मल ग़ज़ल न कह के अलग अलग शेर कहूँगा क्योंकि आखिरी शेर को छोड़ कर बाकी में बह्र तो निभाया है लेकिन ग़ज़ल में काफ़िया होना चाहिये वो नहीं है।

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 22, 2014 at 7:46pm

आदरणीय मिथिलेश जी, सादर अभिवादन!

आपका मार्गदर्शन मेरे लिए अमूल्य है आपका हार्दिक आभार मेरी कोशिश जारी रहेगी ..सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2014 at 7:20pm

1222 X 4 बहर का खूब निभाया है बधाई आदरणीय जवाहर जी .... बस इसे ग़ज़ल बनाने के लिए काफिया निर्धारित कर ले या गीत बना ले एक मुखड़ा बस चाहिए  जैसे  

वतन को  बाद रक्खोगे 

उसे क्या याद रक्खोगे 

हुकूमत हाथ में आते,

नशा तो छा ही जाता है,

अगर भाषा नहीं बदली,

तो कैसे याद रक्खोगे.

किये थे वादे हमने जो,

मुझे भी याद है वो सब,

मनाया जश्न जो कुछ दिन,

उसे तो याद रक्खोगे.

एक छोटा सा संशोधन -

लुटेगा चमन जब तेरा, तभी तो याद रक्खोगे..... चमन लूटे कभी तेरा तभी तो याद रक्खोगे या लुटेगा जब चमन तेरा, तभी तो याद रक्खोगे

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