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ग़ज़ल : हर अँधेरा ठगा नहीं करता

हर अँधेरा ठगा नहीं करता

हर उजाला वफा नहीं करता

 

देख बच्चा भी ले ग्रहण में तो

सूर्य उसपर दया नहीं करता

 

चाँद सूरज का मैल भी ना हो

फिर भी तम से दगा नहीं करता

 

बावफा है जो देश खाता है

बेवफा है जो क्या नहीं करता

 

गल रही कोढ़ से सियासत है

कोइ अब भी दवा नहीं करता

 

प्यार खींचे इसे समंदर का

नीर यूँ ही बहा नहीं करता

 

झूठ साबित हुई कहावत ये

श्वान को घी पचा नहीं करता

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 11, 2011 at 5:40pm
बागी जी, वंदना जी, दुष्यंत जी, अरुण जी, विवेक जी एवं आशीष जी ग़ज़लल पसंद करने के लिए आप सबका बहुत बहुत आभार
Comment by आशीष यादव on March 9, 2011 at 6:57pm
sundar khayaalo ki khubsurat ghazal. bikul hakikati bato se bhari. congrats sir.
Comment by विवेक मिश्र on March 9, 2011 at 2:49pm

आदरणीय धर्मेन्द्र सर,

उम्दा ख्यालों से लबरेज़ इस ग़ज़ल की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है. दाद कबूल करें.

'सकते' की वज़ह से नीचे लिखे मिसरे को आपकी नज़र-ए-सानी की दरकार है.

/कोइ अब भी दवा नहीं करता/ (ab+bhi)

 

सादर

Comment by Abhinav Arun on March 9, 2011 at 1:48pm
बहुत खूब -

गल रही कोढ़ से सियासत है

कोइ अब भी दवा नहीं करता

बिलकुल सामायिक शेर और प्रभावी भी बधाई |

Comment by दुष्यंत सेवक on March 9, 2011 at 12:21pm
बहुत सुंदर...सुंदर शब्दों मे तल्ख़ बात की है धर्मेन्द्र जी....व्यवस्था को आईना दिखती रचना...आभार

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 9, 2011 at 9:19am

झूठ साबित हुई कहावत ये

श्वान को घी पचा नहीं करता,

 

वाह वाह धर्मेन्द्र भाई , बहुत खूब कहा है , अब तो श्वान कम्बल ओढ़ घी पी रहे है और पचा भी ले रहे है पर कभी कभी अधिकता के कारण उल्टियाँ भी कर रहे है मतलब ओवर फ्लो हो जा रहा है |

सभी शे'र एक पर एक , बधाई कुबूल करे |

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