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जानकीप्रसाद जी सेवानिवृत्ति के पश्चात कई वर्षों से अपनी पत्नि के साथ, बड़े प्यार से अपना बचा हुआ जीवन व्यतीत कर रहे है. दीपावली के आते ही घर में रंगरोगन का काम शुरू होने वाला है. जानकीप्रसाद जी ने अपने पडौसी से कहकर, दीवारों पर रंग करने के लिए एक पुताई वाले को बुलवाया है. उस पुताई वाले  नौजवान को देख अकेले रह रहे बुजुर्ग दंपति बहुत खुश है. क्युकी दो-तीन दिनों के लिए एक मेहमान आया है

 

“बेटा! तुम्हारा क्या नाम है..? “ जानकीप्रसाद जी ने बड़े ही स्नेह से पूछा

 

प्रश्न के सुनते ही नौजवान के चेहरे पर संकोच की कई लकीरें थी, जो जानकीप्रसाद को अपनी उम्र के अनुभव व् बुजुर्ग कमजोर आँखों से भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी. फिर भी धीमें स्वर में नौजवान ने कहा..

 

“ जी,  मोहम्मद अयाज “

 

“ अरे..बेटा! बड़ा प्यारा नाम है तुम्हारा, इतना संकोच क्यों कर रहे थे अपना नाम बताने में. अगर तुम अपने नाम से धर्म की स्पष्टता से डर रहे थे तो बेटा सुनो..तुम्हारी उम्र का मेरा भी बेटा है जिसका नाम श्रवण है, यहीं इसी शहर में हमसे अलग रहता है अपनी पत्नी के साथ “ जानकीप्रसाद जी की आवाज में एक पिता का आत्मबल व् एक बरगद के पेड़ की घनी गहरी छाँव भी थी

 

 

         जितेन्द्र ‘गीत’

   (मौलिक व् अप्रकाशित)   

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Comment by khursheed khairadi on November 10, 2014 at 2:26pm

आदरणीय जितेंदर साहब ,सुन्दर प्रस्तुति है |मानवता का उज्जवल पक्ष प्रस्तुत करती हुई रचना है |सादर अभिनन्दन |


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 10, 2014 at 11:32am

कथानक उत्तम लेकिन प्रस्तुति ढीली। अचानक ये कमी आपकी लघुकथाओं में क्यों पाई जाने लगी हैं भाई जितेंद्र जी ?

Comment by somesh kumar on November 9, 2014 at 5:08pm

वाह श्रवण और अयाज की प्रतीकात्मता ही इस लघुकथा की मारकता को दर्शाती है ,सुंदर प्रयास मित्र 

Comment by ram shiromani pathak on November 9, 2014 at 2:20pm

सुन्दर प्रस्तुति  आदरणीय जीतेन्द्र भाई //हार्दिक बधाई आपको 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 9, 2014 at 9:10am

आदरणीय बागी जी,

आपकी बधाई शिरोधार्य है. लघुकथा में ढीलापन मेरे अनावश्यक उत्साह या आतुरता की  भी हो सकती है, आपने अपना अमूल्य समय देकर मुझे अनुग्रहित किया है. भविष्य में आपके स्नेहिल मार्गदर्शन की हमेशा आवश्यकता चाहिए स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 9, 2014 at 9:02am

लघुकथा पर आपका आशीर्वाद मिला, लेखन धन्य हुआ आदरणीय डा.विजय जी. स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 9, 2014 at 9:01am

आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हमेशा मेरा मनोबल बरकरार रखती है आदरणीया राजेश दीदी. आपका ह्रदय से आभारी हूँ. स्नेह बनाए रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 9, 2014 at 8:59am

आपने रचना के मर्म को छुआ, आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय आलोक जी. स्नेह बनाए रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 9, 2014 at 8:58am

सर्वप्रथम मैं अपने द्वारा लेखन की अस्पष्टता के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, अन्यथा वालि कोई बात ही नहीं आदरणीय शुशील जी. आप मेरे अग्रज है, और आपने अपने अनुज को निजी विचार दिया है अत: मैं आपका आभारी हूँ.

लघुकथा में जानकीप्रसाद उस नौजवान के आगमन पर खुश भी है और उसके अन्दर का संकोच भी मिटाना चाहते है. पिता या अनुभवी इंसान हमेशा एक कठोर आत्मबल व् स्नेह भरी छाँव ही देता है. इस बात को ध्यान में रखकर ही यह पंक्ति लिखी थी. आपकी बधाई सर आँखों पर, अपना स्नेह हमेशा बनाए रखियेगा

सादर!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 8, 2014 at 7:31pm

लघुकथा के लिए जितना खूबसूरत प्लाट का चयन किया गया है उतना ही कमजोर चाहरदिवारी तैयार की गयी, आदरणीय सरना जी बहुत ही मार्के की बात कही है, आदरणीय जीतेन्द्र जी की कई लघुकथाएँ छप चुकी है फिर यह ढीलापन क्यों ? इस लघुकथा को और कॉम्पैक्ट करने की जरुरत है, बहरहाल इस प्रयास पर बधाई।

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