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जो प्रिय है -डा० विजय शंकर.

कोई सच प्रिय है
कोई सच अप्रिय है
कोई कोई तो कटु है |
सच तो सच है ॥
सच है, इसीलिये तो सच है |
और इसीलिये तो, है ॥

झूठ वो है जो नहीं है ,
फिर भी है , क्योंकि
हम मान रहे हैं, कि है,
हम इसलिए मान रहे हैं
क्यों कि वह हमको प्रिय है ॥

हमको क्या प्रिय है,
वो झूठ , जो है नहीं ,
जो है नहीं , कहीं नहीं
वह हमको प्रिय है ॥
जो है नहीं वो हमको
प्रिय कैसे हो सकता है ||

वो क्या है जो हमें
प्रिय है और है नहीं ,
वो कौन सी चाहत है ,
वो कौन सी कल्पना है ,
हम उसे साकार क्यों नहीं कर लेते हैं ,
क्यों नहीं उसे सत्य का रूप दे देते हैं ,
क्यों नहीं हम प्रिय को सत्य कर लेते हैं ,
प्रिय को हम सत्य क्यों नहीं कर लेते हैं

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on November 1, 2014 at 12:04pm

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय नरेंद्र सिंह चौहान जी। 

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 1, 2014 at 12:03pm

सही कहा आपने प्रिय जीतेन्द्र जी , किंचित इसीलिये हम सदैव एक भ्रम में रहते हैं। सत्य को अस्वीकार करना ही सबसे बड़ा भ्रम है।
आपकी सद्भावनाओं के लिए आभार , बधाई के लिए धन्यवाद।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 1, 2014 at 10:21am

प्रकृति द्वारा निर्मित इस मानव को क्या प्रिय है क्या अप्रिय...? सच और झूठ से कहाँ कोई मतलब. जो मन को भाये उसे स्वीकार करते चलो, जो न भाये उसे एक तरफ रख दो. बहुत ही सटीक प्रस्तुति आदरणीय डा.विजय जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें

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