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ख्वाब   हरगिज   न  पूरे  हमारे  हुये  I

हम तो बाजी मुहब्बत की हारे हुये II

 

दोस्त    हमको   भुलावा   ही    देते रहे

वक्त जब आ  पड़ा तो  किनारे हुये I

 

माफ़ जबसे    हमारी   खता   हर   हुई

हमने समझा कि गर्दिश में तार  हुये I

 

उनका नजरे चुराने  का  ढब देखिये

कैसे-कैसे   गजब   के   इशारे   हुये I

  

इश्क नजरो में जब से नुमायाँ हुआ

कितने दिलकश जहाँ के नज़ारे हुये I

 

हुस्न अपनी   खनक    में  ही मदहोश है

और हम अपनी किस्मत के मारे हुये I

 

चैन मस्जिद में भी मिल न पाया मुझे

हम  जले    इस   कदर   के    शरारे हुये I

(मौलिक और अप्रकाशित)

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 23, 2014 at 10:52am

विजय सर !

आपका धन्यवाद i आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 23, 2014 at 10:52am

आदरणीय नीलेश जी

गजल का शऊर  मुझे बिलकुल नहीं i मैंने स्वय डरते-डरते ये गजल पोस्ट की i शुक्र है इतनी बुरी नहीं गुजरी i दोष के बारे मे विस्तार से बतायें ताकि  दूर कर सकूं i  

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 22, 2014 at 4:22pm

  दीपावली की शुभ कामनाएं।  ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी।  

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 22, 2014 at 1:30pm

बहुत खूब आदरणीय डॉ. साहब 
शानदार अशआर हुए हैं ,,आपको बधाई ..
मक्ते में मुझे के साथ हम आने से ऐबे शातुर्गुरबा है .. इसका संज्ञान लें 
आदर 

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