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ग़ज़ल : जिया गुमनाम हूँ तो मौत को तशहीर मत देना

नए ज़हनों को छूने दो अदब के अनछुए पहलू

इन्हे मीरास में उलझी हुई ज़न्जीर मत देना

लबों को सी लिया मैने,खुदा ये बस में था मेरे

जो आहें दिल से उठ जाएं उन्हें तासीर मत देना

नई है नस्ल नई जंगें नए हथियार भी होंगे

क़लम दो मुल्क के हाथों में अब शमशीर मत देना

मचल जाए ना मेरी रूह फिर दुनिया में आने को

जिया गुमनाम हूँ तो मौत को तशहीर मत देना

रहूँ मैं मुन्हसिर दीदार को कागज़ के टुकड़े पर ?
मुझे तो चाँद है काफी भले तस्वीर मत देना

-सालिम शेख

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by harivallabh sharma on September 16, 2014 at 5:01pm

बहुत अच्छी ग़ज़ल हुयी आदरणीय..बस बिना मतले के कुछ खटकता है..

Comment by Sulabh Agnihotri on September 16, 2014 at 3:37pm

नए ज़हनों को छूने दो अदब के अनछुए पहलू

इन्हे मीरास में उलझी हुई ज़न्जीर मत देना

लबों को सी लिया मैने,खुदा ये बस में था मेरे

जो आहें दिल से उठ जाएं उन्हें तासीर मत देना

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है - बरबस वाह निकल पड़ती है।

नई है नस्ल नई जंगें नए हथियार भी होंगे

क़लम दो मुल्क के हाथों में अब शमशीर मत देना

नई जंगें सहज प्रवाह के साथ नहीं आ रहा लगता।

- एक निवेदन है कि कठिन उर्दू शब्दों के हिन्दी में मायने भी दे दिया करें ।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on September 16, 2014 at 2:22pm

एक अदद मतले की कमी खटक रही है.

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