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एक तरही ग़ज़ल - “ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “ ( गिरिराज भंडारी )

“ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “

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लगे कमाने जब भी बच्चे बना लिए घर बार नए

मगर बुढ़ापे को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?

 

आयातित हो गयी सभ्यता पच्छिम, उत्तर, दच्छिन की

बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए

 

हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है

परम्पराएं आज पुरानी खोज रहीं स्वीकार नए

 

पत्ते - डाली ही  काटे  हैं ,  जड़ें वहीं की  वहीं रहीं

इसी लिए तो रोज़ पनपते जाते हैं मक्कार  नए

 

थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा

इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए  

 

ता कि नई सुबह में पायें सजी हुई हम किरणों को

‘’ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए ’’

**************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित  (  संशोधित  )

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 9, 2014 at 8:22pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपकी सराहना हमेशा मेरा उत्साह वर्धन करते आयी है , आपका हार्दिक आभार |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 9, 2014 at 8:00pm
क्या कमाल के शेर कहे हैं आपने आदरणीय गिरिराज जी. हर एक पर तहे दिल से दाद कुबुल कीजीयेगा
Comment by Santlal Karun on September 9, 2014 at 7:31pm

आदरणीय भंडारी जी,

असंगत आधुनिकता के साहचर्य से उपजे नवीन बोध की ध्यानाकर्षक ग़ज़ल --

"खुद मुख्तार हुए जब बच्चे बना लिए घर बार नए

मगर ज़ईफों को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?"

... सहृदय साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by शकील समर on September 9, 2014 at 4:33pm

उम्दा गजल गिरिराज सर। नई पीढ़ी की विसंगतियों पर करारा प्रहार किया है आपने।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 9, 2014 at 1:12pm

मित्र

बहुत सुन्दर  !

थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा

इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए  

कृपया ध्यान दे...

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