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( ग़ज़ल ) जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं (गिरिराज भंडारी )

१२२२  १२२२ १२२२ १२२२

करेंगे होम ही, लेकर सभी आसार बैठे हैं

जिगर वाले जला के हाथ फिर तैयार बैठे हैं

ज़रा ठहरो छिपे घर में अभी मक्कार बैठे हैं

जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं

 

बहारों से कहो जाकर ग़लत तक़सीम है उनकी

कोई खुशहाल दिखता है , बहुत बेज़ार बैठे हैं

 

समझते हैं तेरे हर पैंतरे , गो कुछ नहीं कहते

तेरे जैसे अभी तो सैकड़ों हुशियार बैठे हैं

 

तुम्हें ये धूप की गर्मी नहीं लगती यूँ ही मद्धिम

तपिश के सामने हम हैं , बने दीवार बैठे हैं

 

कभी सैलाब ने धोया , कभी सूखा सताता है

हमें बरबाद करने को बहुत से यार बैठे हैं

 

ये अपने घर का मस्ला है, इसे छोड़ो, कहीं रख दो

अभी तो मुल्क के दुश्मन लगे तैयार बैठे हैं

 

बहुत मायूस होने की ज़रूरत है नहीं साक़ी

क़तारों में अभी सौ - सौ तेरे बीमार बैठे हैं

********************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

 

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 21, 2014 at 1:27am
सातों बहुत अच्छे हैं , एक से बढ़ कर एक . सुन्दर , बहुत बहुत बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी .

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 9:19pm

आदरणीया सविता जी , सरहाना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 9:18pm

आदरनीय रवि भाई , आपकी सराहना से मेरा उत्साह दोगुना हो गया । उत्साह वर्ध न के लिये आपका आभारी हूँ ।

/तपिश के सामने हम हैं , बने दीवार बैठे हैं /   -- मै इस तरह अपनी बात को दो स्तर मे पूरी करने का प्रयास किया हूँ ।

1 - तपिश कम लगने का कारण कौन है -- वो हम हैं 

2- तपिश कैसे कम कर रहे हैं -----             दीवार  बन के बैठ के 

फिर भी अगर ये बात आप जैसे प्रबुद्ध पाठक तक नही पहुँचा पाया तो इसे मै अपनी ही ग़लती मानता हूँ , 

मै इस मिसरे मे सुधार कर लूंगा ---- तपिश के सामने हम जो  बने दीवार बैठे हैं  ---   ऐसा कहूँ तो कैसा रहेगा ? 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 9:06pm

आदरणीय संत लाल भाई , आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिये आपका आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 9:05pm

आदरणीय नरेन्द्र भाई , उत्साह वर्धन  के लिये आपका हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 8:59pm

आदरणीया राजेश जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत बहुत  शुक्रिया  ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 8:57pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , गज़ल को आपका आशीर्वाद मिला , कहना सफल हुआ , आपका हार्दिक आभार ।

Comment by savitamishra on August 20, 2014 at 7:52pm

ज़रा ठहरो छिपे घर में अभी मक्कार बैठे हैं

जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं ...बहुत खुबसुरत भैया _/\_

Comment by Ravi Prabhakar on August 20, 2014 at 7:47pm

आदरणीय गिरीराज भंडारी जी,
क्या खूब ग़ज़ल कहीं आपने, मजा ही आ गया। जितनी बार भी गुनगुनाया उतनी बार ही बस वाह-वाह ही निकली। एक सफल प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। यदि आप एक संशय निवारण कर दें तो आपका बहुत उपकार होगा:

/तपिश के सामने हम हैं , बने दीवार बैठे हैं /

इसमें मुझे पहले वाला ‘हैं’ शब्द थोड़ा अखर रहा हूँ। मैं स्पष्ट कर दूं कि ग़ज़ल के बारे में मुझे बिल्कुल भी जानकारी नहीं है और आप सरीखे वरिष्ठ साहित्यकार से इस तरह का सवाल करना शायद मेरा दुस्साहस ही है। उम्मीद है कि आप निराश नहीं करेंगे। सादर ।

Comment by Santlal Karun on August 20, 2014 at 6:06pm

आदरणीय भंडारी जी,

नवीन किन्तु सामयिक भावबोध की बहुत अच्छी ग़ज़ल, साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

कृपया ध्यान दे...

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