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गंगा के नाले (लघु कथा) // --शुभ्रांशु पाण्डॆय

"अरे वाह आज तो मजा आ गया", रमेश घर में घुसते ही चहकते हुये बोला, ".. दुकानदार ने सामान का बिल बनाते समय साढ़े पाँच सौ रुपये कम जोड़े !"

“पापा, फ़िर तो आपको वो लौटा देना था न !”, बेटी नेहा ने अपनी आँखो को और बडा़ करते हुये कहा.

“पागल हो क्या ?”, मानों उसकी नादानी पर हँसते हुये रमेश ने कहा, “.... आज हम पार्टी करेंगे…”

 

नेहा के मन में टीचर की बतायी बातें कौंध गयीं, “गंगा में तमाम नदियाँ ही नहीं मिलतीं, शहरों के गंदे नाले भी गिरते हैं.”

उसे लगा, वो गंगा में गिरने वाले एक बड़े-से फ़ेनिल नाले के मुहाने पर खडी़ है.

 

(मौलिक और अप्रकशित)

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Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2014 at 8:13pm

//नेहा के मन में टीचर की बतायी बातें कौंध गयीं, “गंगा में तमाम नदियाँ ही नहीं मिलतीं, शहरों के गंदे नाले भी गिरते हैं.” उसे लगा, वो गंगा में गिरने वाले एक बड़े-से फ़ेनिल नाले के मुहाने पर खडी़ है. //

इन नालों को न नकारते बनता है, न स्वीकारते. ये नाले अपने भौतिक स्वरूप में समस्या तो हैं ही, लाक्षणिक तौर पर भी वैेसी ही समस्या होते हैं.

इस लघकथा को लेकर एक अत्यंत संयत प्रयास हुआ है.  इस प्रयास के लिए हृदय से बधाई और शुभकामनाएँ..

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 3, 2014 at 9:30am
आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी! अत्यंत मर्मस्पर्शी लघुकथा । निस्संदेह प्रायः बच्चे हम बड़ों से ही बुराई सीखते हैं।
Comment by Shubhranshu Pandey on July 30, 2014 at 12:05am

धन्यवाद आदरणीया राजेश कुमारी जी. 

Comment by Shubhranshu Pandey on July 30, 2014 at 12:03am

कथा पर समय देने के लिये धन्यवाद आदरणीया वन्दना जी.

Comment by Shubhranshu Pandey on July 30, 2014 at 12:03am

धन्यवाद आदरणीय विनय जी.

Comment by Shubhranshu Pandey on July 30, 2014 at 12:02am

आदरणीय डा गोपाल नारायण जी, 

कथा पर समय् देने के लिये धन्यवाद.

सादर.

Comment by Shubhranshu Pandey on July 29, 2014 at 11:37pm

आदरणीय जितेन्द्र जी, कथा पर विचार रखने के लिये धन्यवाद. 

सादर.


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Comment by rajesh kumari on July 29, 2014 at 11:23pm

बहुत बढ़िया लघु कथा ---जिसे पढ़ कर मुझे एक पुराना वाकया याद आया ,एक बार जब बैंक कम्प्यूटर से कनेक्ट नहीं थे मेरे पति पासबुक अपडेट कराने गए तो वहां क्लर्क ने १० ००० अर्थात दस हजार में एक और जीरो लगाकर पासबुक अपडेट कर दी जो बाद में वो अपने रिकार्ड में भी लिख दी ,घर आकर जब देख तो हम दोनों अचरज में पड़ गए मेरे पति उसी वक़्त बैंक पँहुचे और उस क्लर्क को उसकी गलती बताई वो मेरे पति के पैरों में पड़ गया ....उस घटना से मेरी नजरों में मेरे पति की इज्जत दोगुनी बढ़ गई .सच लिखा आपने लघु कथा की  उस लड़की को ऐसा ही एहसास हुआ होगा ,क्यूंकि बच्चे अपनी टीचर की बात को पत्थर की लकीर समझते हैं ,आपको बहुत बहुत बधाई इस लघु कथा के लिए 

Comment by vandana on July 29, 2014 at 8:56pm

बहुत सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय 

Comment by विनय कुमार on July 29, 2014 at 5:28pm

ये फ़र्क़ आज हर जगह पाया जाता है , हम ये नहीं सोचते कि बच्चों को क्या उदहारण प्रस्तुत कर रहे हैं | बहुत बढ़िया लघुकथा , बधाई |   

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