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** 2122 2122 2122 212

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दोष थोड़ा सा समय का कुछ मेरी आवारगी

सीधे-सीधे चल न पायी इसलिए भी जिंदगी

**

हम  तुम्हें  कैसे कहें  अब  दूरियों  को  पाट लो

कम न कर पाये जो खुद हम आपसी नाराजगी

**

कल हवा को भी  इजाजत  दी न थी यूँ आपने

आज  क्यों  भाने  लगी   है  गैर की मौजूदगी

**

रात-दिन  करने  पड़ेंगे यूँ जतन कुछ तो हमें

कहने भर से दोस्तों  ये किस्मतें कब हैं जगी

**

घर  जलाकर  आप  नाहक  जा रहे हैं साथ में

ये सियासत तो न होगी आपकी फिर भी सगी

**

पुरअसर होगी ‘मुसाफिर’ के जिगर पर भी सदा

हर गजल  यारो  किसी के प्यार में गर हो पगी

**

(रचना - 17 जनवरी 2010)

मौलिक और अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

Views: 842

Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 24, 2014 at 11:12am

आ० भाई सौरभ जी मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार l


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 23, 2014 at 6:03pm

आपने अब स्पष्ट किया है, आदरणीय लक्ष्मण भाईजी. अब आप सही हैं.

शभ-शुभ

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 23, 2014 at 10:16am

आदरणीय भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन । गजल पर आपकी उपस्थिति के लिए आभार । जैसा कि आपने इस गजल में काफिए के विषय में पूछा है । दरअस्ल इसमें मैंने काफिये के बतौर अगी लिया है और इसमें रदीफ नहीं है । क्या अगी को बतौर काफिया नहीं लिया जा सकता ? मार्गदर्शन करें । यह भ्रम की स्थिति शायद भाई शिज्जू शकूर जी के प्रश्न का गलत जवाब दे दिये जाने के कारण पैदा हो गयी है ।
आपने जिस पंक्ति में संशोधन सुझाया है वह यथेष्ठ है । यह मेरी कहन को पुख्ता ही करता है कमजोर नहीं । भविष्य में शब्दों के चयन पर और गौर करूंगा । मार्गदर्शन करते रहिए । पुनः हार्दिक आभार ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2014 at 1:03am

आदरणीय लक्ष्मण धामीजी,
आपकी ग़ज़ल का काफ़िया कहाँ है ? बिना रदीफ़ ग़ज़ल हो सकती है, बिना काफ़िया नहीं. आपने यदि ’ई’की मात्रा को काफ़िया लिया है तो फिर मतले में ’गी’ की तुकान्तता नहीं होनी थी.
यह तो हुई एक बात.

दूसरी बात, कि जबतक बहुत जरूरत न हो मात्रा गिराना बदमज़ग़ी ही पैदा करता है. अब मतला के सानी को ही लें - सीधे-सीधे चल न पायी इसलिए भी जिंदगी
क्या इसे

राह सीधी चल न पायी इसलिए भी ज़िन्दग़ी  कर सकते हैं क्या ?

क्या ऐसा करना आपकी कहन के माने को बहुत दूर ले जायेगा ? मुझे ऐसा लगा नहीं.
सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2014 at 11:27am

आओ भाई विजय निकोर जी , मेरे लिए रचना पर आपकी टिप्पणी का अर्थ एक पुरस्कार ही है . हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2014 at 11:25am

आ० भाई जीतेन्द्र जी , रचना पर आपकी उपस्थिति से मनोबल बढ़ा . हार्दिक धन्यवाद l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2014 at 11:23am

आ० भाई संतलाल जी , प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2014 at 11:22am

आ० भाई गुमनाम जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2014 at 11:21am

आ0 राजेश बहन उत्साहवर्धन और त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए हार्दिक धन्यवाद । त्रुटि संशाधित कर ली गयी है ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2014 at 11:20am

आ0 भाई गिरिराज जी प्रशंसा और सलाह के लिए हार्दिक धन्यवाद । आपके सुझावानुसार संशोधन कर लिया है । पुनः हार्दिक धन्यवाद ।

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