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सिसकियाँ भरते रहे हम रात भर

सिसकियाँ भरते रहे हम रात भर
चाँद ने भी देखा पर कुछ ना कहा
हवाएँ भी सुनकर चलती रही
दर्द सीने में लहरों सा उठता रहा
चाँदनी बादलों में छुपने लगी
सांस भी रह-रह कर रूकने लगी
सिर्फ बची मैं और मेरी तन्हाईयाँ
यादें करती रही पीछा बनकर परछाइयाँ
घटाओं ने समझा दर्द बस मेरा
बरसती रही वो रात भर
जख्म रिस-रिस कर ऐसे बहने लगे
घाव मरहम की ख्वाहिश में सहने लगे
पिघलकर रूह बिछने लगी
साया भी खुद से सहमने लगा
लौ जलती रही मगर तेल कम था
एक चमक सी उठी और दिया बुझ गया

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2014 at 12:02am

रनाकर्म को सतत करें आदरणीया, बहुत से पहलू सामने खुलेंगे.

शुभेच्छाएँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 26, 2014 at 3:26pm

आदरणीया प्रज्ञा श्रीवास्तव जी 

दर्द की अति और कोइ समझने वाला न हो ...कोइ दिलासा दे कर सम्हालने वाला न हो.. न कोइ इंसान , न प्रकृति.... ऐसे नैराश्य में भी एक रौशनी की किरण अवश्य ही कहीं ना कहीं ज़रूर रहती है..... जिसे हम ही देखना नहीं चाहते या फिर देख कर भी अनदेखा कर देते हैं..

काव्य का लक्ष्य उस किरण की ओर पाठक के लिए इशारा करना होना चाहिए. अन्यथा निराशावादी कवितायेँ कईयों को अपने ही मन की बात लगती सी एक गलत सन्देश दे जाती हैं. 

सकारात्मकता से ही ह्रदय में जीवन संचार होता है... और ये चयन हमेशा ही मनुष्य के हाथ में होता है.

इस अभिव्यक्ति के लिए मेरी शुभकामनाएं 

सस्नेह 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 22, 2014 at 10:20am

बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना आदरणीया प्रज्ञा जी, हार्दिक बधाई आपको

Comment by वेदिका on June 22, 2014 at 2:48am
सुन्दर प्रस्तुति!
Comment by savitamishra on June 21, 2014 at 11:50pm

बहुत सुन्दर

Comment by Meena Pathak on June 21, 2014 at 10:17pm

बहुत सुन्दर ... भावपूर्ण प्रस्तुति ... सादर बधाई  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 21, 2014 at 11:14am

आ. प्रज्ञा जी , सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये बधाई ॥

Comment by coontee mukerji on June 19, 2014 at 11:57pm

मैं गोपाल जी की बातों से सहमत हूँ.....प्रयास ज़ारी रखें /सादर.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 19, 2014 at 12:02pm

प्रज्ञा जी

आपकी  दुखांत कविता कई मायने में अच्छी है  किन्तु यदि करुणांत करना था तो पीड़ा को थोडा और उभारना चाहिए था ताकि अंत स्वाभाविक लगे i  कलम पर आपकी पकड़ अच्छी है और विषय से भटकाव नहीं है i  शुभ कामना सहित i

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