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जेठ की तपती दुपहरी!

जेठ की तपती दुपहरी!

जेठ की तपती दुपहरी, लगे नीरव शांत।
धूप झुलसा रही काया, स्वेद से मन क्लांत।।
शाख पर पक्षी विकल है, गेह में मनु जात।
सूर्य अम्बर आग उगले, जीव व्याकुल गात।१।

जल भरी ठंडी सुराही, पान कर मन तुष्ट।
दूध माखन और मठठा, तन करे है पुष्ट।।
पना अमरस संग चटनी, भा रहे पकवान।
कर्ण को मधुरिम लगे फिर, आज कोयल गान।२।

गूँजता अमराइयों में, बिरह पपिहा राग।
गाँठकर छाया दुपहरी, पढ़ रही निज भाग।।
कृष हुई सरिता निराली, सूख मंथर चाल।
फूल गुलमोहर खिले हैं, आज देखो लाल।३।

शयन गृह वातानुकूलित, पेय शीतल मांग।
मन ललचता देख कुल्फी, ठण्डई औ भांग।।
ग्रीष्म ऋतु की छुट्टियों में, सुरमई हो शाम।
घूमकर शिमला मनाली, कर रहे विश्राम।४।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Shyam Narain Verma on May 21, 2014 at 11:37am
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ............

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 21, 2014 at 11:29am

आदरणीय सत्यनारायण जी हर ऋतु का अपना सौंदर्य होता है ग्रीष्म ऋतु की खूबियों को आपने खूबसूरती से व्यक्त किया है बहुत बहुत बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on May 21, 2014 at 11:23am

आदरणीय सत्यनारायण जी, ज्येष्ठ ऋतु का सुन्दर श्रृंगार हुआ है यूं लग रहा है मानों दहकते मन को घने पीपल की छाँव मिल गई हो.बधाइयाँ.......................

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