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गजल : बिंदी, काजल, झुमके, बेसर, चूड़ियां//शकील जमशेदपुरी

बह्र : 2122/2122/212


बिंदी, काजल, झुमके, बेसर, चूड़ियां
पास वो रखतीं हैं कितनी बिजलियां

आज फिर उसने किया है मुझको याद
आज फिर अच्छी लगीं हैं हिचकियां

खुशबू तेरी लाएगी बाद-ए-सबा          [बाद-ए-सबा = सुब्ह की हवा]  
खोल दी कमरे की मैंने खिड़कियां

तेरी जुल्फों से उलझती है हवा
काश मैं भी करता यूं अठखेलियां

दिल तो तेरे नाम से मंसूब था          [मंसूब= निर्दिष्ट, Assign]
यूं बहुत आई थी दर पे लड़कियां

जब से आई है मेरे कॉलेज में वो
अच्छी लगती हैं नहीं अब छुटि्टयां

नाम तेरा आ गया लब पर मेरे
हो गईं मुझसे खफा सब तितलियां

रूठने का राज मैं समझा 'शकील'
कान भरतीं हैं तुम्हारी बालियां

-शकील जमशेदपुरी

_____________________

*मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 3, 2014 at 11:11am

आदरणीय शकील भाई , एक रूमानियत भरी ग़ज़ल के लिए कुटी कोटि बधाई .

Comment by शकील समर on May 3, 2014 at 12:05am

बहुत—बहुत शुक्रिया Gajendra shrotriya जी।

Comment by शकील समर on May 3, 2014 at 12:04am

दाद दी मेरी गजल पर शुक्रिया
मुझको डर था पड़ न जाए गालियां :P


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on May 2, 2014 at 11:40pm

आज फिर अच्छी लगीं हैं हिचकियां.....

वाह !!!!!!!!

छू गई दिल को मेरे, अच्छी गज़ल

खुद बखुद बजने लगी हैं तालियाँ ..............

Comment by Gajendra shrotriya on May 2, 2014 at 10:33pm

कुछ शरारती अशआर बुनकर खूब रुमानियत भरी ग़ज़ल कही है आदरणीय शकील ज़ी आपने।

खुशबू तेरी लाएगी बाद-ए-सबा
खोल दी कमरे की मैंने खिड़कियां

बहुत खूब कहा है।

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