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यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण

तभी तो ये दोनों मोड़ देते हैं दिक्काल के धागों से बुनी चादर

कम कर देते हैं समय की गति

इन्हें कैद करके नहीं रख पातीं स्थान और समय की विमाएँ

ये रिसते रहते हैं एक ब्रह्मांड से दूसरे ब्रह्मांड में

ले जाते हैं आकर्षण उन स्थानों तक

जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती

अब तक किये गये सारे प्रयोग

असफल रहे इन दोनों का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण खोज पाने में

लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इनको महसूस करता है

यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 28, 2014 at 10:13am

बहुत बहुत शुक्रिया Satyanarayan जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 28, 2014 at 10:12am

बहुत बहुत शुक्रिया Dr.Prachi Singh जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 28, 2014 at 10:12am

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ Saurabh Pandey जी। स्नेह बना रहे।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 28, 2014 at 10:11am

बहुत बहुत शुक्रिया गिरिराज भंडारी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 28, 2014 at 10:11am

धन्यवाद annapurna bajpai जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 28, 2014 at 10:11am

बहुत बहुत शुक्रिया Arun जी

Comment by Satyanarayan Singh on May 23, 2014 at 5:14pm

प्रेम को विज्ञान की परिधि में परिभाषित करती इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 23, 2014 at 11:23am

बहुत सार्थकता से प्रेम के मूल कारण/स्वरुप तक पहुँचने का प्रयास हुआ है.. मुझे लगता है की हिग्ज़ बोजोन या ग्रेविटोन कण ही वो माध्यम हैं जिनसे ये सारी प्रकृति /ब्रह्माण्ड परस्पर आबद्ध हैं/ खूबसूरत समन्वय में हैं एक वार्तालाप करते से...

फिजिक्स को मेटा-फिजिक्स तक ले जाती... इस गहन प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 15, 2014 at 1:02am

प्रेम की सार्वभौमिकता को जिन बिम्बात्मक नोमेनक्लेचर के साथ रखा गया है वह अचंभित करता है. बहुत-बहुत शुभकामनाएँ..


चाहे वो फोटोन्स हों या वो ग्लुऑन्स हों या फिर बोसोन्स हों यानि गॉड्स ओन पार्टिकल्स ! कुछ हैं जो प्राणिजगत के मस्तिष्क के न्यूरान कोशिकाओं (सेल्स) को संयमित और संतुलित करते हैं कि उन्हें आखिर सिग्नल क्या आते हैं !

ये सिग्नल ही तो संप्रेषणीयता का इंगित हैं. इन्हीं इंगितों की सार्थकता को साहित्य और कला परिभाषित करती हैं, जो हॉरमोन्स की सान्द्र तीव्रता मात्र पर निर्भर नहीं करते..वस्तुतः, मनस की वृत्तियों का विस्तार मनोविज्ञान के माध्यम से समझ में आता है.
आपकी इस रचना के लिए बधाई, आदरणीय..
:-)))


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 2, 2014 at 10:32pm

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , प्रेम को नये ढंग से परिभाषित हो ते देख बहुत अच्छा  लगा ! आपको हार्दिक बधाई ॥

कृपया ध्यान दे...

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