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निर्ममता से जो पड़ी ,खूब समय की  बेंत। 
नदिया पूरी बह गई ,शेष  रह  गई  रेत  !!१ 
 
शहर हमारी देह सा ,रक्त नदी की  धार। 
नस-नस में काहे करे, नाला समझ विचार।।२ 
 
नदी जन्म देती शहर ,शहर बन रहे शाप। 
मैली करते कोख को ,मिलजुल कर हम-आप !!३ 
 
नदी  दीन  सी हो गई , बजी ईंट से ईंट। 
काँटों से तट पर उगे ,घावनुमा  कंक्रीट।।४ 
 
आसमान जो फट गया ,दुष्कर भागम-भाग !
झुलस गए तट साथ के ,लगी नदी में आग।। ५ 
 
वानर से ही नर बना , सदा कुलाटी  खाय !
अपनी हो या गैर की , उम्र नज़र ना आय।।६ 
 
करती कितना नारियाँ ,जप तप और उपवास !
फिर भी नन्ही बच्चियां ,भोग  रही  संत्रास।।७ 
 
काला - रंग समाज का , चिंता की है बात। 
बद से बदतर हो रहे , जीने  के  हालात।।८ 
 
पायल तुम झंकार पर , इतना मत इतराव। 
घुंघरू खुद बजते नहीं ,अगर हिले ना  पाँव।।९ 
 
ना मानूँ मै धर्म को ,मानूँ  ना भगवान् !
मै तो इतना जानता ,समय बड़ा बलवान।।१० 
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अविनाश बागडे...मौलिक/अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 10:41pm

वंदना जी आभारी हूँ  

Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 10:40pm

बहुत बहुत आभार महीमा जी। .

Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 10:39pm

गिरिराज भंडारी सर शुक्रिया आपकी हौसला अफ़ज़ाई का 

Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 10:38pm

Shyam Narain Verma जी बहुत बहुत आभार।

Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 10:37pm

अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी बहुत बहुत आभारी हूँ ...

Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 10:36pm
Comment by रमेश कुमार चौहान on January 4, 2014 at 7:04pm

आदरणीय अविनाशजी बहुत ही सुंदर दोहे कहे है आपने बधाई विशेषकर -

पायल तुम झंकार पर , इतना मत इतराव। 
घुंघरू खुद बजते नहीं ,अगर हिले ना  पाँव।।
Comment by gumnaam pithoragarhi on January 4, 2014 at 6:31pm

करती कितना नारियाँ ,जप तप और उपवास ! फिर भी नन्ही बच्चियां ,भोग रही संत्रास।।७ पायल तुम झंकार पर , इतना मत इतराव। घुंघरू खुद बजते नहीं ,अगर हिले ना पाँव।।९ निर्ममता से जो पड़ी ,खूब समय की बेंत। नदिया पूरी बह गई ,शेष रह गई रेत !!१

 दोहे अच्छे हैं

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 4, 2014 at 5:48pm

बढ़िया दोहे आदरणीय अविनाश जी  !

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 4, 2014 at 5:16pm
निर्ममता से जो पड़ी ,खूब समय की  बेंत। 
नदिया पूरी बह गई ,शेष  रह  गई  रेत  !!१  .. वाह शानदार दोहा.
 
शहर हमारी देह सा ,रक्त नदी की  धार। 
नस-नस में काहे करे, नाला समझ विचार।।२यथार्थ पर सटीक दोहा वाह वाह
 
नदी जन्म देती शहर ,शहर बन रहे शाप। 
मैली करते कोख को ,मिलजुल कर हम-आप !!३ अय हय क्या खूब बानगी है भाई जी वाह
 
नदी  दीन  सी हो गई , बजी ईंट से ईंट। 
काँटों से तट पर उगे ,घावनुमा  कंक्रीट।।४ अति सुन्दर
 
आसमान जो फट गया ,दुष्कर भागम-भाग !  आसमान जगण दोष है शायद
झुलस गए तट साथ के ,लगी नदी में आग।। ५ 
 
वानर से ही नर बना , सदा कुलाटी  खाय !
अपनी हो या गैर की , उम्र नज़र ना आय।।६क्या कहने भाई गज़ब
 
करती कितना नारियाँ ,जप तप और उपवास !
फिर भी नन्ही बच्चियां ,भोग  रही  संत्रास।।७ वर्तमान परिपेक्ष पर फिट बैठता दोहा वाह वाह
 
काला - रंग समाज का , चिंता की है बात। 
बद से बदतर हो रहे , जीने  के  हालात।।८ विचारणीय प्रश्न करता दोहा .. बेहतरीन
 
पायल तुम झंकार पर , इतना मत इतराव। 
घुंघरू खुद बजते नहीं ,अगर हिले ना  पाँव।।९ क्या बात कही आपने वो भी इतनी नजाकत से .. पायल को आईना दिखा दिया आपने.
 
ना मानूँ मै धर्म को ,मानूँ  ना भगवान् !
मै तो इतना जानता ,समय बड़ा बलवान।।१० ..
बहुत सुन्दर दोहा आदरणीय .
बहुत ही सुन्दर दोहावली रची है आपने सभी दोहे एक से बढ़कर एक हुए हैं. यथार्थ को दर्शाते सुन्दर संदेशप्रद दोहावली हेतु बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

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