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"क्या? आपने धूम्रपान छोड़ दिया? ये तो आपने कमाल ही कर दिया।"
"आखिर इतनी पुरानी आदत को एकदम से छोड़ देना कोई मामूली बात तो नहीं।"
"सही कहा आपने, ये तो कभी सिगरेट बुझने ही नही देते थे।"
"जो भी है, इनकी दृढ इच्छा शक्ति की दाद देनी होगी।"
"इस आदत को छुड़वाने का श्रेय आखिर किस को जाता है?"
"भाभी को?"  
"गुरु जी को?"
"नहीं, मेरी रिटायरमेंट को।"उसने ठंडी सांस लेते हुए उत्तर दिया।
.
.
(मौलिक व अप्रकाशित) 

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Comment by कल्पना रामानी on April 5, 2014 at 10:18pm

 मुझे लघुकथाएँ बहुत अच्छी लगती हैं। यह संवेदनाओं को हृदय के तल तक पहुँचाने वाली सशक्त अभिव्यक्ति है, सेवामुक्ति के दर्द को आपने जिस खूबी से  उभारा  है, विस्मित करने वाला है। अपने आसपास और घरों में भी इस तरह के किस्से होते रहते हैं। कम से कम शब्दों में सहज सार प्रस्तुत कर देना मामूली बात नहीं है। इस सशक्त रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीय योगराज जी... 

Comment by Kiran Arya on December 11, 2013 at 4:17pm

एक कड़वे सच को उजागर करती है आपकी ये कहानी सर .........


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2013 at 4:49pm

भाई बृजेश नीरज जी
भाई वीनस केसरी जी
रचना को समय देने के और अपनी बहुमूल्य राय से अवगत करवाने के लिए आपका बेहद शुकरगुज़ार हूँ              


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2013 at 4:48pm

भाई गणेश बागी जी, ओबीओ प्रमुख द्वारा सराहना पाना मेरे लिए बेहद हर्ष का विषय है. आपको लघुकथा पसंद आई जह जान कर बेहद संतोष हुआ, आपका हार्दिक धन्यवाद।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2013 at 4:45pm


आ० डॉ प्राची सिंह जी, लघुकथा दरअसल एक बहुत ही नाज़ुक सी विधा है जिस में लेखक को एक विशेष पल की बात करनी होती है. एक भी शब्द/वाक्य की कमी या ज्यादती रचना के मूल तत्व पर कुठारघात की तरह काम करती है. आपने रचना को सराहा उसके मर्म को समझा, उसके लिए तहे दिल से आपका शुक्रिया।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2013 at 4:45pm

संवाद शैली में लघुकथा कहना थोडा मुश्किल तो अवश्य होता है, लेकिन अगर ध्यान रखा जाये तो अनावश्यक डिटेल से बचने में यह शैली काफी कारगर रहती है. आ० सौरभ भाई जी, इस लघुकथा को आपने समय देकर सराहा उसके लिए मैं आपका दिल से धन्यवाद करता हूँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 8, 2013 at 11:16am

आदरणीय सर,

लघुकथा के बारे में एक विशेष बात जो मुझे लगती है वह यही है कि "लघुकथा में एक भी शब्द ऐसा नहीं होता जिसे हटाया जा सकने की गुंजाइश हो" और कथा अपनी बात सार्थक और सशक्त तरह से रखने में सक्षम भी हो.... इस कसौटी पर जब मैं आपकी लघुकथाओं को पढ़ती हूँ तो दंग रह जाती हूँ की इतना क्रिस्प, सारगर्भित सन्देश दिया जा सकता है.... और हमेशा यही बात सीखने का प्रयत्न भी करती हूँ.

सबकी ही किसी बात को प्रस्तुत करने की अपनी एक अलग शैली होती है... इस कथोपकथन शैली में, बिना पात्रों के नाम दिए जाने की गुंजाइश के भी आप अपना सन्देश जिस सफलता से और प्रखरता से देते हैं यह आपकी शैली की विशिष्टता है..

सेवानिवृत्ति के बाद की ज़िंदगी के संवेदनशील कथानक को लघुकथा में आपने बहुत धारदार तरह से रूप दिया है.

हार्दिक बधाई स्वीकार करें.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 8, 2013 at 2:22am

लघुकथा के मानकों तथा कसौटियों के प्रिज़्म से इस लघुकथा को देखा जाय तो यह लघुकथा उनके एक विन्दु कथानक को सहेजती-सम्भालती हुई-सी लगी. संवाद शैली में आपकी इधर कई लघुकथाओं को पढ़ने का सौभाग्य मिला है, आदरणीय.

यह भी उन लघुकथाओं से अलग नहीं है.

किन्तु, आपकी विशिष्ट और प्रखर शैली के कारण प्रस्तुत लघुकथा की प्रस्तुति भी संयत तथा अत्यंत प्रभावी बन पड़ी है. 

इस कथा के लिए हार्दिक बधाई तथा अनेकानेक शुभकामनाएँ, आदरणीय योगराज भाईसाहब.

मुझे एक पुरानी फ़िल्म ’ज़िन्दग़ी का स्मरण हो आया जिसमें संजीव कुमार और माला सिन्हा ने रिटायर्ड दंपति की भूमिका निभायी थी. संजीव कुमार भरे-पूरे परिवार के होने के बावज़ूद अक्सर सिगरेट को पहले टुकड़ों में तोड़ कर कर पीते थे, ताकि  एक-एक सिगरेट कुछ ज्यादा समय तक पी जा सके. फिर उन्होंने भी इसका पान करना छोड़ दिया था. 

सादर

Comment by वीनस केसरी on December 7, 2013 at 1:45am

अभी लघुकथा पर हुए व्यापक चर्चा को पढ़ने का अवसर मिला ..

इस लघुकथा के बारे में एक पाठक की हैसियत से मेरा कमेन्ट ये है कि इसे लघुकथा के मानक से खारिज करना सही नहीं है मुझे लगता है कि लघुकथा अपने कथानक के साथ पूरा न्याय कर रही है ..
मगर मेरी नज़र में यह भी उतनी ही सही बात है कि इस लघुकथा का प्लाट नया नहीं रह गया है, बल्कि इसी प्लाट पर कुछ फेर बदल के साथ मैंने कुछ कार्टून  संवाद भी पढ़े हैं जो पत्रिकाओं में छपते थे, शायद आज भी छपते हों, जिसमें दो सहेलियों के वार्तालाप में यही बात प्रस्तुत की जाती है, एक सहेली लत छोड़वाने की तारीफ़ करते हुए बधाई देती है मगर दूसरी सहेली द्वारा खुद को कारण न बता कर पति द्वारा लत छोड़ने के अलग अलग कारण बताती है जिसमें मँहगाई से ले कर, पड़ोसी के बराबर बड़ी गाड़ी खरीदने के लिए बचत और रिटायरमेंट तक को कारण के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है ...
जब मैंने पहली बार इस लघु कथा को पढ़ा था तो मुझे भी वही सारे कार्टून संवाद याद हो आये थे ...

अगर उन कार्टून संवाद को न जानने वाला कोई व्यक्ति इसे पढ़े तो उसे बड़ा आनंद मिलेगा मगर मुझे इस प्लाट में कोई नयापन नहीं दिखा था ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 6, 2013 at 10:51pm

भाई राहुलजी,

आप अत्यंत उर्वर मनस के सतत प्रयत्नशील लेखक हैं. ऐसा अबतक लगा है मुझे. आपकी समझ और उस परिप्रेक्ष्य में हुए आपके प्रयास एक पाठक होने के नाते मुझे आह्लादित करते हैं. यह हिन्दी साहित्य का जहाँ सौभाग्य है कि आप जैसे प्रखर युवा हिन्दी गद्य-पद्य लेखन  --और रचनाधर्मिता को भी--  गंभीरता से ले रहे हैं. वहीं डर भी सताता रहता है कि किंचित धैर्यहीनता और उससे प्रसूत वाचालता स्थिति को क्षणिक ही सही कितना हास्यास्पद कर दे रही है.

लघुकथा पर हमने आपके मंतव्य को अत्यंत गंभीरता से पढ़ा इसलिये नहीं कि आपसे एक-दो दफ़े मैं मिल चुका हूँ, इसलिए नहीं कि आपको जानता हूँ. बल्कि इसलिए कि आपके लिखे को मैंने थोड़ा-बहुत पढ़ा है, समझा है, सराहा है और आश्वस्त भी हुआ हूँ.

लेकिन मेरी यह आश्वस्ति एक नवोदित के गंभीर प्रयास के प्रति है. संयत हो गये किसी रचनाकार के प्रति नहीं. सफ़र बहुत बाकी है भाई. बहुत चलना है.

नम्रता और सम्मानपूर्वक निवेदन की भी एक शैली होती है. यह किसी को कहने और किसी से सुनने के लिए स्पेस मुहैया कराती है. यह तथ्य आप कितना जानते हैं ?

आप इस मंच पर नये हैं. यह सच्चाई है.  लेकिन आप साहित्यकर्म और तदनुरूप प्रयास में नये हैं यह मेरा भी भ्रम होगा. किन्तु, आप लघुकथा पर कितना जानते हैं यह अलबत्ता अभी जानना बाकी है.

कारण, आपने कहा है --

मैंने योगराज जी की लघुकथा को सिरे से नहीं नकारा है। हिन्दी साहित्य में चूंकि यह विधा अपने सफ़र में है, अतः इसके संवैधानिक स्वरूप पर अत्यल्प काम हुआ है। मैं इस ओर अपने अध्ययन को केन्द्रित करते हुए एक शोध आलेख लिखने की सोच रहा हूँ।
भाई मेरे यह क्या है ?

यह कैसी उक्ति है ? लघुकथा विधा को आप कितना जानते हैं कि इसे एकदम से असंयत और अनगढ़ हुआ मान गये?

संभवतः लघुकथाओं के आपने ढेरों संग्रह पढ़ रखे हों, ऐसा मेरा अनुमान है. लेकिन आप क्या इतने आत्ममुग्ध पाठक या लेखक हैं, कि बिना किसी रेफ़रेंस या मानक को साझा किये हुए किसी वरिष्ठ विद्वान की रचना पर यों वाचाल हो सकते हैं ?

मैं यह नहीं कहता कि आप किसी लेखक को उसके मात्र नाम और उसकी वरिष्ठता से जानें.

ओबीओ ऐसा मंच है भी नहीं. अलबत्ता हाल में बन गये कतिपय सदस्यों की फेसबुकिया हुआँ-हुआँ से इस मंच को मत आँकियेगा. हमसभी इस व्यवहार के धुर विरोधी हैं. क्योंकि हर रचना की अपनी विशिष्ट संज्ञा होती है और उसके बाद उसकी अपनी सत्ता होती है. उसी के परिप्रेक्ष्य में किसी रचनाकार की रचना आँकी जानी चाहिये. लेकिन बिना किसी संदर्भ के ? वो भी इसतरह से ? भाई मेरे, वस्तुतः आप साबित क्या करना चाहते हैं ?

आपने इस मंच पर पोस्ट हुई अबतक कितनी लघुकथायें पढ़ी हैं ? क्या आपने उनपर अपनी सार्थक टिप्पणियाँ दी हैं ? उन लघुकथाओं पर हुई टिप्पणियों को आपने पढ़ा तक है ?
यदि नहीं, तो आप अवश्य इस भूल को सुधारते हुए आवश्यक समय दें और तब आगे कुछ कहें. 

यदि हाँ, तो आपके ’नो कोमेण्ट्स’ वाले और बाद में किये गये ऐसे लापरवाह कोमेण्ट्स वाकई मुझे चकित कर रहे हैं.

और, यह भी स्वयं सोचियेगा कि आप प्रस्तुत लघुकथा ’श्रेय’ के लेखक की कितनी लघुकथायें अबतक पढ़ चुके हैं ? इस लघुकथा पर हमने भी अभी तक टिप्पणी नहीं की है. लेकिन इसे नहीं पढ़ा हूँ ऐसा भी नहीं है.
शुभेच्छाएँ

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