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ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
.
आसनों पे हैं निशाचर जंगलों में राम है।
साधुओं के वेष में शैतान मिलना आम है॥
.
राहुओं को जीवनामृत, नीलकण्ठों को गरल,
अंत में प्रत्येक मंथन का यही अंजाम है।
.
और कितना द्रोपदी के चीर को लंबा करे,
दम बहुत दु:शासनों में, मुश्किलों में श्याम है।
.
क़ातिलों,बहरूपियों,पाखंडियों के हाट में,
ज़िंदगी मेरी-तुम्हारी कौड़ियों के दाम है।
.
गर न खाना मिल सके दो वक़्त,आदत डाल दे,
चार दिन है भुखमरी फिर क़ब्र में आराम है।
.
मसखरों के हाथ में जनतंत्र की हैं चाबियाँ,
बत्तियाँ सारी बुझा के सो रही अव्वाम है।
.
धूप की मैली-कुचैली बस्तियों के उस तरफ़,
एक मैं हूँ,एक तू है और ख़ाली शाम है।
.
किस तरफ़ जाए 'रवी' किसको बनाए रहनुमा,
हर नज़र नाआशना है,हर डगर बदनाम है॥
.
मौलिक व अप्रकाशित॥

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Comment

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Comment by Ravi Prakash on November 7, 2013 at 6:48am
आ॰ वीनस जी, इतना स्नेह और आशीर्वाद देने के लिए कोटिश: धन्यवाद । बहुत माथापच्ची करने पर भी मैं 'अवाम' का सही इस्तेमाल नहीं कर पाया और न ही इसकी टक्कर का कोई और शब्द खोज पाया।इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।बहरहाल पुनः शुक्रिया।
Comment by वीनस केसरी on November 7, 2013 at 12:59am

बहुत खूब
जनाब आप तो छा गए

अव्वाम पर पुनः गौर फरमाएं .. मेरे ख्याल से ये अवाम १२१ होता है

Comment by ram shiromani pathak on November 7, 2013 at 12:06am

गर न खाना मिल सके दो वक़्त,आदत डाल दे,
चार दिन है भुखमरी फिर क़ब्र में आराम है।///

वाह भाई वाह क्या बिम्ब खीचा है आपने। ………। लाजवाब ,ज़ोरदार ग़ज़ल
बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by ajay sharma on November 6, 2013 at 10:48pm

गर न खाना मिल सके दो वक़्त,आदत डाल दे,
चार दिन है भुखमरी फिर क़ब्र में आराम है।     kya mashvira diya hi ......fir kabr me aaraam hai 

Comment by ajay sharma on November 6, 2013 at 10:46pm

मसखरों के हाथ में जनतंत्र की हैं चाबियाँ,
बत्तियाँ सारी बुझा के सो रही अव्वाम है।

bahut hi khoob kaha hai ....sare ke sare sher apni apni chhap chodne me qamyab rahe ...zindabad gazal 

......" bekhabar anjaan ho kar so rahi avaam hai" ....... 

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