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शातिर (अतुकांत) ---गणेश जी बागी

बादलों से ढँका
नीला नही काला आकाश,
उचाईयों को मापता
उन्मुक्त पंछी,
चट्टान की ओट मे
फाँसने को आतुर बहेलिया,
आहा ! इधर ही आ रहा मूर्ख
फँसेगा, ज़रूर फँसेगा,
ओह ! बच गया,
शायद भांप गया । 

पुनः पेड़ की ओट मे,
वाह ! इधर ही आ रहा दुष्ट
आएगा इस बार
इस तीर की ज़द मे,
उफ्फ ! बच गया
बड़ा चालाक है
खैर, कब तक । 

हरे काले सफेद

रंगो से पुता
आवरण युक्त चेहरा
झाड़ियों के मध्य समाहित
दम साधे बहेलिया,
सनसनाता तीर
आ गिरा ज़मीन पर
शातिर कही का !
बादलों से मुक्त हुआ आकाश
और साथ मे
आवरण विहीन चेहरा भी |

(मौलिक व अप्रकाशित)

पिछला पोस्ट =>लघुकथा : गिफ्ट

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Comment by गिरिराज भंडारी on October 17, 2013 at 7:27pm

आदरणीय गणेश भाई , आज इस समाज मे ऐसे ही स्वतंत्र घूमते परिन्दों के लिये जाल बिछाये बहेलियों की कोई कमी नही है !!!! रोज़ ही शिकार हो रहे हैं !!! बहुत सुन्दर ढंग से आपने अपनी रचना मे समेटा है इस विषय को !!!! बहुत बहुत बधाई भाई जी !!!!

Comment by Abhinav Arun on October 17, 2013 at 6:55pm

वाह बागी जी चमत्कृत किया है आपने इस कविता के द्वारा बिलकुल आपकी लघुकथा की ही तरह बांधे रखती है ये कविता पाठक को अंत तक ..सफल सशक्त ..सारगर्भित इस रचना के लिए बहुत बधाई आदरणीय !!

Comment by Sarita Bhatia on October 17, 2013 at 6:01pm

बहुत मार्मिक और सार्थकता बताती हुई रचना 

आदरणीय बागी जी हार्दिक बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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