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बर्ताव
बर्ताव का अर्थ -- स्पर्श !
मुलायम नहीं..
गुदाज़ लोथड़ों में
लगातार धँसते जाने की बेरहम ज़िद्दी आदत

तीन-तीन अंधे पहरों में से
कुछेक लम्हें ले लेने भर से
बात बनी ही कहाँ है कभी ?


चाहिये-चाहिये-चाहिये.. और और और चाहिये
सुन्न पड़ जाने की अशक्तता तक
बस चाहिये

आगे,
देर गयी रात 

उन तीन पहरों की कई-कई आँधियों के बाद 
लोथड़े की
तेज़धार चाकू की निर्दयी नोंक
खरबूजा-खरबूजा खेलती है
सुन्न पड़े के साथ
बेमतलब सी भोर होने तक.

*******************************

-सौरभ

(मौलिक और अप्रकाशित)

 

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Comment

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Comment by विजय मिश्र on October 16, 2013 at 6:57pm

" वर्ताव - स्पर्श -मुलायम -गुदाज लोथड़े -कुछेक लम्हें -....... . " स्तब्ध कर देती है आपकी यह रचना , मान गया कि आप क्यूँ सम्मानीय हैं,लोग इतना लिहाज क्यूँ बरतते है ! सौरभजी , आपके दर्शन की प्रगाढ़ता को मेरा नमन.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 16, 2013 at 6:13pm

आदरणीय सौरभ सर आपकी रचना किसी विधा में हो मुझे जो बात सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है वो है प्रवाह, आपकी इस रचना में शब्द के साथ भाव भी झरने से प्रवाहमान हैं, कहीं भी अटकाव महसूस नही हुआ, बहुत बढ़िया सर दिली दाद कुबूल करें

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 16, 2013 at 5:21pm

बार पढने को विवश करती और मन को उद्वेलित करती  रचना | रिश्ते नाजुक होते है और सद्व्यहार की नोक पर टिके होते है और

भोर होने तक -------

रचना के भाव पुर्णतः समझने में असमर्थ हूँ आदरणीय  ! बस इतना ही समझ पाया की सम्बन्ध कितने नाजुक होते है जो किसी भी पहर टूट के शिकार हो जाते है | 

Comment by shashi purwar on October 16, 2013 at 5:04pm

ओह क्या कहूँ सौरभ जी , अतुकांत रचना एक ही बार पढ़ी जाती है , यह ४ बार पढ़ गयी , रोंगटे खड़े हो गए दिल में बैचेन हलचल सिहरने  लगी।क्या  कहूँ। ………। शब्द भी सिहर रहे है। …
आगे,
देर गयी रात 

उन तीन पहरों की कई-कई आँधियों के बाद 
लोथड़े की
तेज़धार चाकू की निर्दयी नोंक
खरबूजा-खरबूजा खेलती है
सुन्न पड़े के साथ
बेमतलब सी भोर होने तक.…………। और भोर होने तक एक ख़ामोशी सी पसरी है इस सन्नाटे में। ……… उम्दा बधाई आपको


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 16, 2013 at 4:10pm

आपने बहुत कुछ कह दिया है, वीनस भाई.  इस रचना का मर्म आप बखूब समझ रहे हैं.

शुभ-शुभ

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 16, 2013 at 4:01pm

अत्यंत गंभीर चिंतन ..बार बार पढ़ने पर कुछ कुछ समझ में आ रहा है पर ये दावा कतई नहीं करूँगा कि पूरी तरह समझ में आ पाया ..कहीं कहीं अतिक्रमित  होती सम्बेदनहीनता , कहीं शोषण की पराकाष्ठा, कहीं अपनी डफली अपना राग ..ये सब तो शाब्दिक अर्थ है ..पर माजरा कुछ और ही लग रहा है ...आदरणीय सौरभ सर ..आपसे सतत ही कुछ न कुछ सीखने को मिलता रहता है ..इस परिवार के साथ जुडकर हम कहाँ होंगे पता नहीं पर जहाँ हैं वहाँ से कहीं बेहतर ही होंगे ..आपको हादिक बधाई के साथ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 16, 2013 at 3:35pm

भाई बृजेशजी, कविताकर्म का मर्म साझा किया है आपने. रचना-प्रयास सार्थक हुआ तो पाठक स्वयं को देखना चाहता है. आपका मुखर अनुमोदन इसके प्रति आश्वस्त भी करता है.
शुभ-शुभ

Comment by वीनस केसरी on October 16, 2013 at 3:30pm

इस रचना को पढते पढते झुरझुरी आई और देर तक शरीर सुन्न पड़ा रहा ....

व्याख्या से परे ....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 16, 2013 at 3:26pm

भाई गणेशजी, आपके शब्दों ने मेरे कहे को इतनी दूर तक महसूस किया है कि पंक्तियों के भावार्थ अपनी समस्त संज्ञा के साथ सामने दीखते हैं. सम्बन्धों का आधार कितना आग्रही हो गया है ! उस हिसाब से रिश्तों का दायरा उतना ही छोटा. अपनत्व की सामुहिकता हाँफती हुई सी हो गयी है.
रचना को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.
शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 16, 2013 at 3:18pm

आदरणीय गिरिराजजी,
यह किसी रचना की अकथ कमजोरी होती है यदि वह पाठकों की परीक्षा लेने की कोशिश करती है. एक रचना अपने पाठक को संतुष्ट करे यह अवश्य होना चाहिये. पाठक की मनोदशा रचना की पंक्तियों से निस्सृत हो. अलबत्ता, हर रचना हर पाठक के लिए नहीं होती.
आपने जिस सरलता से पारस्परिक और वैयक्तिक सम्बन्धों की परछाईं पंक्तियों में महसूस किया है वह मेरी रचना के एक बिम्ब का स्वरूप है.
आपका अनुमोदन सिर-माथे, आदरणीय
सादर

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