मुजरिम मैं नहीं पर मुफ़लिसी गोयाई छीन लेती है
दौलत आज भी इन्साफ की बीनाई छीन लेती है
हैं जौहर आज भी मुझ में वही तेवर भी हैं लेकिन
सियासत अब मेरे हाथों से रोशनाई छीन लेती है
नफरत थक गयी दामन मेरा मैला न कर पाई
मोहब्बत मेरे दामन से हर रुसवाई छीन लेती है
यही रहज़न कभी रहबर हुआ करता था बस्ती का
ग़रीबी रंग में आती है तो अच्छाई छीन लेती है
~सालिम शेख
मौलिक एवं अप्रकाशित
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मोहतरम वीनस केसरी जी ज़हे नसीब कि आप के क़ीमती तब्सरे ने मेरे अशआर की वक़्अत मे इज़ाफ़ा किया, आगे से मैं ख्याल रखूँगा की गज़ल की तमाम बारीकियों का ख़याल रख सकूँ
शेर अच्छे कह रहे हैं ...कक्षाएं ज्वाइन कर लें ...ग़ज़लगोई निखर जायेगी :-) शुभकामनायें और बधाई आदरणीय !!
काफ़िया रदीफ़ का सुन्दर निर्वाह किया है बधाई स्वीकारें ....
ग़ज़ल विधान के अन्य तत्वों का निर्वाह कर ले जाते तो शानदार ग़ज़ल हो जाती
शुभकामनाएं
बेहतरीन शेर कहे आपने, बधाई आपको आदरणीय सालिम साहब
आ0 गिरिराज भंडारी जी बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय सलीम भाई , चारों शे र लाजवाब कहे हैं आपने , आपको बहुत बहुत बधाई !!
आदरणीय अरुण शर्मा जी सराहना एवं मार्गदर्शन के लिए तहे दिल से शुक्रिया
मैं आपका आभारी हूँ की आपने मेरे अशआर देखे और अपने कीमती मशवरों से नवाज़ा
आगे से मैं बह्र लिखने का ध्यान ज़रूर रखूँगा
आ0 श्याम नरेन वर्मा जी बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय सालिम शेख भाई ओ बी ओ पर आपका हार्दिक स्वागत है, आपने चार अशआर पेश किये हैं यदि एक अशआर और जोड़ देते तो ग़ज़ल पूर्ण हो जाती साथ ही साथ बहर का भी लिख देंगे तो मुझे एवं ग़ज़ल सीख रहे अन्य मित्रों को ग़ज़ल को समझने एवं टिपण्णी करने में सहजता हो जाएगी.
भाई यदि आपके चार अशआर की बात करूँ तो दिल को छू लिया आपने, मतला ही ऐसा शानदार है कि बस वाह वाह कहने का बरबस ही मन कर जाता है, अंतिम शेर ने तो लूट ही लिया भाई. इन अशआरों पर मेरी ओर से दिली दाद कुबूल फरमाएं.
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ……………… |
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