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पीने लगे हैं लोग पिलाने लगे हैं लोग

२२१२   १२१     १२२१   २२२१

पीने लगे हैं लोग पिलाने लगे हैं लोग

महफ़िल को मयकदों सा सजाने लगे हैं लोग

 

दिल में नहीं था प्रेम दिखाने लगे हैं लोग

जब भी मिले हैं, हाथ मिलाने लगे हैं लोग

 

आयी थी रूह बीच में जब भी बुरे थे काम

अब तो सदाये रूह दबाने लगे हैं लोग

 

कश्ती बचा ली, खुद को डुबो कहते थे मल्हार

खुद को बचा के नाव डुबोने लगे हैं लोग

 

रखनी जो बात याद किसी को नहीं थी याद

जो भूलना नहीं था भुलाने लगे हैं लोग

 

कुछ हो, मगर वो प्यार कभी हो नहीं सकता है

करके जिसे निगाह चुराने लगे हैं लोग

 

तस्वीर अब जमाने की बदली है देखो आशु  

अपनी खुशी में सब को रुलाने लगे हैं लोग

 

डॉ आशुतोष मिश्र

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 15, 2013 at 8:44am

आदरणीय वीनस जी ..आपके मार्गदर्शन के लिए हार्दिक धन्यवाद ..आपके बताये अनुरूप मैं कुछ बाते तो समझ गया लेकिन क्रमांक ४ और ५ पे दिए गए सुझाव को और हिंट दे तो शायद बात मुझे समझ आ पाए .... भैबिस्य में भी मुझे ऐसा ही मार्गदर्शन आपसे मिलता रहे ताकी तमाम तकनीकी पक्षों की जानकारी मुझे हो सके ..पुनः हार्दिक धन्यवाद के साथ 

Comment by वीनस केसरी on September 15, 2013 at 12:01am

बहुत शानादार ग़ज़ल हुई है
एक एक शेर में की गई मेहनत नफासत और नजाकत नुमायाँ है ...

ढेरों दाद क़ुबूल करें ...


कुछ बातें कहने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ

१- आपने जो अरकान बताया है उसे गलत तरीके से तोड़ दिया है सही अरकान इस प्रकार टूटता है -
२२१ / २१२१ / १२२१ / २१२

२ - अंत में लिया गया लघु अतिरिक्त होता है जिसे अरकान लिखना जरूरी नहीं है

३ - आपने अंत के २१२ को २२२ लिख दिया है जबकि ग़ज़ल में इसे आपने २१२ की तर्ज पर ही निभाया है (एक जगह शेर बेबहर है)

४- अतिरिक्त लघु के लिए स्वतंत्र शब्द लेना मिसरे को बेबहर कर देता है

५-अतिरिक्त लघु के लिए दीर्घ शब्द ले कर उसे गिरा कर अतिरिक्त लघु बनाना मिसरे को बेबहर कर देता है (इसके कुछ अपवाद मौजूद हैं)

६ - डुबोने काफ़िया नहीं चल पायेगा .,,, इसे डुबाने होना चाहिए

Comment by annapurna bajpai on September 14, 2013 at 11:17pm
आदरणीय आशुतोष जी बढ़िया गजल हुई है बहुत बधाई आपको ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 14, 2013 at 2:23pm

आदरणीय अखिलेश जी ..हौसला अफजाई के लिए तहे दिल शुक्रीया 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 14, 2013 at 2:08pm

तथा कथित अंग्रेजी परस्त / अभिजात्य वर्ग पर अग्नि बाण छोड़ने के लिए बधाई और हिंदी दिवस की शुभकामना आशुतोषजी  ! 

और अंग्रेजी परस्त अभिजात्य वर्ग के लिए---   घर को मयकदों सा सजाने लगे हैं लोग ।

 नहीं थी याद //   नहीं है याद ।

हो नहीं सकता है //  हो नहीं सकता ।  

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 14, 2013 at 12:28pm

आदरनीय जितेंद्रजी , आदरनीय गिरिराज जी , आदरणीया परवीन जी ..हौसला अफजाई के लिए हार्दिक धन्यवाद ..अपना स्नेह यूं ही बनाए रखें ...सादर प्रणाम के साथ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 14, 2013 at 12:03pm

आदरणीय आशुतोष जी , बढ़िया गज़ल हुई है , बधाई

आयी थी रूह बीच में जब भी बुरे थे काम

अब तो सदाये रूह दबाने लगे हैं लोग ----------------- लाजवाब बात कही !!

एक जगह टंकण त्रुटि से क़ाफिया डुबोने लिख गया है , डुबाने की जगह !!

Comment by Parveen Malik on September 14, 2013 at 12:01pm
आदरणीय बहुत बढ़िया गजल ... बधाई !
तस्वीर अब जमाने की बदली है देखो आशु
अपनी खुशी में सब को रुलाने लगे हैं लोग
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 14, 2013 at 11:27am

दिल में नहीं था प्रेम दिखाने लगे हैं लोग

जब भी मिले हैं, हाथ मिलाने लगे हैं लोग........वाह! यह शेर बहुत पसंद आया

बहुत बढ़िया गजल , तहे दिल से दाद कुबूल कीजिये आदरणीय डा. आशुतोष जी

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