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कुछ बहा पर बचा ज़रा भी है

जख़्म लेकिन, कही हरा भी है

जिनको बांटा उन्हें मिला भी पर

प्यार से दिल मेरा भरा भी है

ख़्वाब ताबीर तक कहाँ पहुंचा

थक के हारा, कभी मरा भी है

बात करता है वो महज़ सच की

सरफिरा है मगर खरा भी है   

जख़्म तुम सोच के ही दिखलाओ

हाथ निश्तर है ,उस्तरा भी है

ज़िन्दगी एक स्वाद क्या मानी

स्वाद मीठा है चरपरा भी है  

कोई कहता मुझे,मै खुश होता

तू कहीं से गज़ल सरा भी है

  मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 12, 2013 at 9:47am

//कुछ बहा पर बचा ज़रा भी है

जख़्म लेकिनकही हरा भी है//

ख़्वाब ताबीर तक कहाँ पहुंचा

थक के हाराकभी मरा भी है

//बात करता है वो महज़ सच की

सरफिरा है मगर खरा भी है //  

//जख़्म तुम सोच के ही दिखलाओ

हाथ निश्तर है ,उस्तरा भी है//

आदरणीय गिरिराज जी खूबसूरत अशआर हैं दाद कुबूल करें

Comment by Parveen Malik on September 12, 2013 at 8:18am
बात करता है वो महज़ सच की
सरफिरा है मगर खरा भी है
बहुत बढिया गजल आदरणीय ...
Comment by ARVIND BHATNAGAR on September 12, 2013 at 7:39am

आदरणीय गिरिराज जी , शानदार ग़ज़ल कहने के लिए बधाई स्वीकार करें ................'बात करता है वो महज़ सच की
सरफिरा है मगर खरा भी है '....बहुत खूब ......

Comment by vandana on September 12, 2013 at 6:37am

बात करता है वो महज़ सच की

सरफिरा है मगर खरा भी है   

बहुत बढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय सर 

Comment by Dr Lalit Kumar Singh on September 12, 2013 at 5:02am

बहुत अच्छा बधाई 

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