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पांच दोहे

 

खुद के अन्दर झाँक के, पढ़  ले तू आलेख

अपने ऐसे हाल का,  खुद  खींचा  आरेख

 

बाहर पानी से बुझे, कण्ठ लगी जो प्यास

भीतर जी मे जो लगी,कौन बुझाये प्यास

 

पंछी घर को लौटते, साँझ लगी गहराय

रे मन चल लग ठौर से,तू काहे पछुवाय

 

अन्धियारी में जुँ रहे, दीपक ही की खोज

अपने अन्दर खोजना, अपना सुख तू रोज   

 

बंद आँख कर देखिये,त्रितिय आँख की ओर

ध्यान सरलता से करें,तनिक न दीजे जोर

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by rajesh kumari on September 2, 2013 at 9:15pm

बहुत सन्देश परक दोहे रचे हैं आदरणीय गिरिराज जी हार्दिक बधाई|


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2013 at 8:43pm

आदरणीय आशीष भाई , बहुत बहुत आभार !! आपको  त्वरित दोहा  रचना के लिये अलग से बहुत बधाई !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2013 at 8:38pm

रविकर भाई , आपका बहुत बहुत शुक्रिया !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2013 at 8:37pm

आदरणीया शुभ्रा जी , आपका आभार !!! आपने सही कहा , मेरी बात आपने पूरी तरह दो लाइन मे कह दी !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2013 at 8:35pm

श्याम भाई , क्या बात कही , वाह वाह !! गागर मे सागर !!

मेरी कविता सूर्यपुत्री हो,  आग का  वह पंछी,   जो किसी भी पिंजरे की सलाखों को भस्मीभूत कर दे !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2013 at 8:26pm

श्याम भाई जी , सरहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया , और उससे दोगुना आपकी सलाह के लिये !! लिख लिया हूँ दिमाग मे , कोशिश जज़ूर करूंगा !! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2013 at 8:22pm

आदरणीय, राम शिरोमणी भाई ,दोहो पर विचार व्यक्त करने के लिये आभार !! अन्यथा लेने जैसी बात कभी नही होगी , ये मै अपने लिये कह सकता हूँ  !! पछुवाय शब्द क्षेत्रिय बोली के शब्दों मे से है जिसका अर्थ पीछे होने से है !! 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 2, 2013 at 8:19pm

आ0 भण्डारी भाई जी, बहुत सुन्दर प्रयास हुआ है। भाई जी, आपकी कथ्य शैली और मात्रा विधान बहुत बढि़या है। थोड़ा संप्रेषण पर भी कार्य करें। बहुत-बहुत शुभकामनाएं। सादर

Comment by रविकर on September 2, 2013 at 8:07pm

बढ़िया सीख-
आभार आदरणीय-

Comment by shubhra sharma on September 2, 2013 at 7:54pm

आदरणीय गिरिराज सर , विचार  और शिक्षाप्रद दोहे, आज के परिपेक्ष्य में सटीक क्योंकि लोग खुद की कमी को ना देख दूसरी में ही कमी खोजने में लगे रहते है , बहुत बहुत बधाई   

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