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लघु कथा : रमजान (गणेश जी बागी)

क किलो मटन आज वास्तव में एक किलो का ही लग रहा था । मैंने तराजू और बाट पर नज़र दौड़ाई । मालूम हुआ दोनों बिल्कुल नये हैं । अभी पिछ्ले महीने ही मटन लेने आया था तो पुराना तराजू और घिसे हुए बाट थे । बाट के नीचे से लगा हुआ तब रांगा भी गायब था । एक किलो मटन मानो आठ सौ ग्राम का ही लगता था | 
दुकान पर मौजूद छोटू से मैने धीरे से पूछ ही लिया, "क्या बात है जी, नया तराजू, नये बाट?.." 
छोटू दुकान मालिक की नज़र बचा कर फुसफुसाया, "सर, रमजान का महीना है ना, मालिक का रोज़ा चल रहा है,  ईद बाद फिर वही ........"
  • समाप्त 
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट => लघु कथा : दर्द

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Comment by Vinita Shukla on August 9, 2013 at 2:07pm

बहुत खूब! 'रमजान के उस एक महीने, दीन और ईमान का पालन अनिवार्य है; नहीं तो खुदा का कहर टूट पड़ेगा. उसके बाद तो कुछ भी 'स्याह सफेद' करते रहो, कोई हर्ज नहीं'- कितने ही लोग, ऐसा सोचते होंगे. बीमार मानसिकता पर प्रहार करने वाली, सार्थक एवं प्रभावी लघुकथा. बधाई आपको.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 9, 2013 at 2:03pm

प्रस्तुत लघुकथा न तो हिंसा की बात करती है न धर्म-रक्षा की.  यह सीधे आईना दिखाती है आज के ढोंगियों की करतूतों की. आज नियम और आचरण कितने छिछले हो गये हैं.  नैतिकता के प्रति हम कितने लापरवाह हैं.

भाई गणेशजी, आपकी पारखी नज़र ने जिस महीनी से तथ्य के प्रति इशारा किया है वह इस लघुकथा को बहुत ऊँचाइयाँ दे सकने में सक्षम है. बहुत-बहुत बधाइयाँ लें

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 9, 2013 at 12:37pm

आ0 बागी सर जी,   वाह! सर जी, जम के क्लास ली है।  तहेदिल से बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें।   सादर

Comment by Shyam Narain Verma on August 9, 2013 at 11:42am
भावनाओं से ओतप्रोत रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें.... 

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 9, 2013 at 10:09am

आदरणीय अभिनव अरुण जी, आपके द्वारा प्राप्त मुक्त कंठ से प्रशंसा हर्षकारी है, बहुत बहुत आभार। 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 9, 2013 at 10:05am

सराहना हेतु आभार आदरणीय यतीन्द्र पाण्डेय जी । 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 9, 2013 at 10:04am

आदरणीया अन्नपूर्णा बाजपेयी जी, उत्साहवर्धन करती प्रथम टिप्पणी हेतु आतिश: आभार।  

Comment by Vindu Babu on August 9, 2013 at 8:20am
हा हा...
क्या चित्र प्रस्तुत किया आपने आदरणीय!
रमजान में इस छोटी सी बात पर तो इतना ध्यान दिया छोटू ने,पर इतनी हिंसा! उसका क्या?
सादर बधाई आपको,इस सफल लघुकथा के लिए,और ईद की भी...
सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 9, 2013 at 8:09am

सच्चाई बयान करती लघुकथा, आदरणीय बागी जी. बधाई स्वीकार करें.
आज मनुष्य के मन में उपरवाले डर एक समय विशेष में ही रहता है उसके बाद उनकी मनुष्यता कहाँ जाती है पता नही.

Comment by Abhinav Arun on August 9, 2013 at 6:34am

वाह बागी जी क्या कहने .. अच्छा दो भाव बखूबी निखर कर आये हैं ... एक तो कहीं न कहीं आज भी भय है उपर वाले का जो हमें सच्चाई का रस्ते का एहसास कराता है पर फिर भी हम दुनियाबी गणित में उलझे रहते हैं ..और दूसरा छोटू का उत्तर उसमे बहुत कुछ है ..हास्य का पुट भी .... अत्यंत श्रेष्ठ रचना अरसे बाद ऐसी सशक्त लघु कथा पढ़ी ..बहुत बहुत बधाई आपको !!

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