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हे शान्त स्निग्ध जल की धारा

 

तुम कलकल कलरव की हो गान

हो लिपटे बेलों की वितान

तुम वसुन्धरा की शोभा हो

हे आन मान सरिता महान

तुझमे दिखता जीवन सारा

हे शान्त स्निग्ध जल की धारा

 

तुझमे निज-छवि लखते उडगन

यह विम्ब देख हर्षाता मन

सुषमा ऐसी नयनों मे बसा

रहता बस मे किसका तन मन

दिखता तुझमे चन्दा प्यारा

हे शान्त स्निग्ध जल की धारा

 

हे मिट्टी की सोंधी सुगन्ध

बाँधे सबको जो पाश बन्ध

तुम अद्भुत और अलौकिक हो

बाँधेगी तुमको कौन छन्द

छन्दों की नही ऐसी कारा

हे शान्त स्निग्ध जल की धारा

 

हे रश्मि प्रभा मे श्वेत जाल

अनुपम मनोहारी चन्द्रभाल

उर्वशी रेणुका सी लगती

(तुम स्वयं अप्सरा सी लगती)

यौवन धारे कंचुक विशाल

वह तुमसे कौन नही हारा

हे शान्त स्निग्ध जल की धारा

 

आशीष यादव

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 6, 2013 at 8:56pm

आशीष जी रचना भावमयी और प्रवाहमयी है| बधाई स्वीकारें| दो सुझाव हैं 

पाश और बंध दोनों एक ही चीज है 

"छंद" और "कारा" को पुल्लिंग माना गया है|

Comment by Meena Pathak on August 6, 2013 at 1:00pm

सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकारें 

Comment by Vasundhara pandey on August 6, 2013 at 12:59pm

कल-कल सी अद्भुत रचना...!!

Comment by विजय मिश्र on August 6, 2013 at 12:35pm
कविता का प्रवाह भी सरिता की तरह ही मन हर्षित करता है .आभार भाई आशीषजी .
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 6, 2013 at 12:24pm

हे मिट्टी की सोंधी सुगन्ध

बाँधे सबको जो पाश बन्ध

तुम अद्भुत और अलौकिक हो

बाँधेगी तुमको कौन छन्द

छन्दों की नही ऐसी कारा

हे शान्त स्निग्ध जल की धारा

 

सुंदर शब्दों से सुसज्जित रचना पर, हार्दिक बधाई आदरणीय आशीष जी

कृपया ध्यान दे...

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