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बहर : २१२ २१२

--------

जो सरल हो गये

वो सफल हो गये

 

जिंदगी द्यूत थी

हम रमल हो गये

 

टालते टालते

वो अटल हो गये

 

देख कमजोर को

सब सबल हो गये

 

भैंस गुस्से में थी

हम अकल हो गये

 

जो गिरे कीच में

वो कमल हो गये

 

अपने दिल से हमीं

बेदखल हो गये

 

देखकर आइना

वो बगल हो गये
---------------

(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 5, 2013 at 11:31am

सुंदर सहज सरल पर मधुर मधुर गजल के लिए हार्दिक बधाई श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 5, 2013 at 9:50am

छोटी बहर पर बहुत सुन्दर गज़ल लिखी है आ० धर्मेन्द्र सिंह जी 

जो गिरे कीच में

वो कमल हो गये..... बहुत सुन्दर 

हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 5, 2013 at 9:47am

आ0 धर्मेंद्र जी,  *देखकर आइना, वो बगल हो गये*  सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।   सादर,


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 4, 2013 at 11:59pm

भाई धर्मेन्द्र सिंह जी, पांचवें शेअर (भैंस वाले) में "अकल" को किस वज्न में बाँधा है ?

Comment by सानी करतारपुरी on July 4, 2013 at 10:59pm

आदरणीय धर्मेंदर जी,  ज़रा सी ज़मीं पे बुलंद ग़ज़ल खड़ी की है .. हर शेअर कमाल लिए हुए है .. बहुत उम्दा ..

Comment by ajay sharma on July 4, 2013 at 10:53pm

wah wah ,,,,,,,,itni small bahr me shandaar prayas ,,,really good

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