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आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार रचना में सुधार का प्रयास किया है। कृपया आप सुधी जन इसे एक बार फिर देखने का कष्ट करें।

2122, 2122, 2122, 212 

चांदनी भी धूप जैसी रात भर चुभती रही

याद जलती सी शमा बन देह में घुलती रही

 

सह रहे थे तीर कितने वक्त से लड़ते हुए

भावना तो संग मेरे मौन बस तकती रही

 

ये सुबह भी रात का आभास देती है मुझे

इन उजालों में अंधेरे की लहर दिखती रही

 

दर-ब-दर हो हम तुम्हारे प्यार को ढूंढा किए

प्रेम की इक ओढ़ चादर वासना फिरती रही

 

आंख ने तो अब सपन ही  देखना चाहा नहीं

नींद ये फिर भी मुझे बदनाम ही करती रही

 

खोजता मैं फिर रहा हूं मस्तियां वो गांव की

भीड़ अब इस शहर की हर पल मुझे छलती रही

छेड़ दी ज्यों ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा

देर तक इन डालियों से ओस सी झरती रही

                     - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on June 5, 2013 at 10:25pm

आदरणीय संदीप जी आपका हार्दिक आभार कि आपने पुनः मेरी रचना को समय दिया। इस सीखने के क्रम में आपके सतत मार्गदर्शन का आकांक्षी हूं।
आशा है आप स्नेह बनाए रखेंगे।
सादर!

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on June 5, 2013 at 9:32pm

बधाई-बधाई-बधाई... :-) शिल्प में कसावट आते ही देखें कथ्य भी कितना निखर कर सामने आया है! यह ग़ज़लों की दुन्या की सबसे मशहूर बह्र है! रमल मुसम्मन महज़ूफ़..! निरंतर अभ्यास से कुछ और महीन तकनीकी पक्ष आपके समक्ष स्वयं ही उभर कर आएँगे और तब आप अपने आपको कहीं अधिक संतुष्ट पायेंगे! पुनश्चः बधाई और शुभेच्छाओं समेत,

Comment by vijay nikore on June 5, 2013 at 1:24am

आदरणीय बृजेश जी:

 

//छेड़ दी जो हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा

देर तक डालियों से ओस सी झरती रही

 

आपकी गज़ल के भाव बहुत अच्छे लगे।

बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by कल्पना रामानी on June 5, 2013 at 12:00am

सुंदर भावपूर्ण गजल के लिए हार्दिक बधाई बृजेश जी...

Comment by बृजेश नीरज on June 4, 2013 at 8:54pm

नीरज भाई आपका हार्दिक आभार! 

Comment by बृजेश नीरज on June 4, 2013 at 8:53pm

प्रिय वंदना बहन आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on June 4, 2013 at 8:52pm

आदरणीय संदीप जी आपसे कोई चूक नहीं हो रही है। आपकी बात अपनी जगह उचित है। इस विधा की अभी मैं ए बी सी डी ही सीख रहा हूं। आप लोगों का मार्गदर्शन यदि यूं ही मिलता रहा तो शायद इस विधा में कुछ सार्थक कर सकूं। आपने जो बातें कही हैं उनका आगे ध्यान रखूंगा। अगले प्रयास में आप संतुष्ट हो सकें, यही कोशिश रहेगी।
एक निवेदन कि आगे आप मेरी रचनाओं पर बेहिचक टिप्पणी किया करें। जो कमियां हों वो इंगित किया करें। इससे मुझे अपनी कमियां दूर करने का अवसर मिलता है। प्लीज टिप्पणी करते वक्त माफी मत मांगा करिए भाई!
आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on June 4, 2013 at 8:44pm

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! इस विधा में अपने अगले प्रयास में आपको संतुष्ट कर सकूं, ऐसा मेरा प्रयास होगा। 

Comment by Neeraj Nishchal on June 4, 2013 at 5:22pm

दर-ब-दर हो तुम्हारे प्यार को ढूंढा किए

प्रेम की ओढ़ चादर वासना फिरती रही

ये तो बहुत गहरी अध्यात्मिक बात कह दी आपने

Comment by Neeraj Nishchal on June 4, 2013 at 5:18pm

बहुत सुन्दर आदरणीय बृजेश जी

कृपया ध्यान दे...

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