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विश्व में आका हमारे//गजल//

 २१२२/२१२२/२१२२/२१२

 

वे सुना है चाँद पर बस्ती बसाना चाहते।

विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते।

 

लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े  हैं सीढ़ियाँ,

शीश पर अब पाँव रख, आकाश पाना चाहते।

 

भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,

दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।

 

बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग,

दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।

 

खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,   

अब हलक की प्यास, लोगों की सुखाना चाहते।  

 

शहरियत से बाँधकर, बँधुआ किया ग्रामीण को,  

गाँव का अस्तित्व ही, शायद मिटाना चाहते।  

 

सिर चढ़ी अंग्रेज़ियत, देशी  भुला दीं बोलियाँ,

बदनियत फिर से, गुलामी को बुलाना चाहते।

 

देश जाए या रसातल, या हो दुश्मन के अधीन,

दे हवा आतंक को, कुर्सी बचाना चाहते।

 

कोशिशें नापाक उनकी, खाक कर दें साथियों,

खाक में जो स्वत्व जन-जन का मिलाना चाहते। 

 

मौलिक व अप्रकाशित

 

कल्पना रामानी  

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Comment

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Comment by कल्पना रामानी on June 3, 2013 at 8:55pm

आदरणीय यतीन्द्र जी,सुंदर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on June 3, 2013 at 8:54pm

आदरणीय जितेंद्र जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on June 3, 2013 at 8:53pm

राजेश जी, आपकी प्रशंसा भरी टिप्पणी से मन बहुत हर्षित हुआ । आपका हार्दिक धन्यवाद

सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on June 3, 2013 at 6:10pm

कोशिशें नापाक उनकी, खाक कर दें साथियों,

खाक में जो स्वत्व जन-जन का मिलाना चाहते।

हमेशा की तरह एक बार पुन: आपकी एक उम्‍दा रचना । पढ़ना भी अच्‍छा लग एवं टिप्‍पणी तो ऐसी रचनाओं पर अपने आप हो जाती हैं,सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 3, 2013 at 3:39pm
आदरणीया..कल्पना जी, बहुत खूबसूरत गजल....शुभकामनायें आदरणीया
Comment by वेदिका on June 3, 2013 at 3:23pm

आदरणीया कल्पना जी! सादर नमन 

बहुत ही उत्कृष्ट कोटि की गजल लिखी आपने ..आपने उन सभी पीडाओं का बखान कर दिया जो तथाकथित आका द्वारा दी हुयी है। 
बहुत ही वाह वाह वाले अश'आर पेश हुए है गजल में
 

भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,

दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।

 

बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग,

दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।

खाक में जो स्वत्व जन-जन का मिलाना चाहते। ...में स्वत्व समझ नही आया बस।  क्या इसका अभिप्राय अस्तित्व से है या स्वाइत्तेता से??? 

अनंत शुभकामनाये आदरणीया  

 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 3, 2013 at 12:48pm

आदरणीया कल्पनाजी, आपके प्रयास नव-हस्ताक्षरों के लिए उदाहरण सदृश होते हैं.

हर शेर उम्दा हुआ है. तल्ख़ियाँ मात्र शाब्दिक भँड़ास नहीं हैं. आपने इन्हें महसूस कर शब्दों में उकेरा है.

सादर बधाइयाँ

Comment by Dr Ashutosh Vajpeyee on June 3, 2013 at 9:35am

वाह वाह कल्पना जी बहुत उत्कृष्ट अद्भुत निर्दुष्ट ग़ज़ल कही आपने............ बहुत बधाई 

कोशिशें नापाक उनकी, खाक कर दें साथियों,

खाक में जो स्वत्व जन-जन का मिलाना चाहते। 

 

Comment by coontee mukerji on June 3, 2013 at 1:05am

हमेशा की तरह एक और सुंदर रचना ,बहुत पैनी दृश्टि आपने समाज के कुछ अंधेरे पहलू पर प्रकाश डाला है....................

खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,   

अब हलक की प्यास, लोगों की सुखाना चाहते।.....................सादर / कुंती

Comment by yatindra pandey on June 2, 2013 at 11:46pm

kya kahu bahut sundar aur jhakjor dene vali panktiya bani hai

mai to aap ka fan ho gaya mam

aabhar swekar kare

yatindra pandey

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