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उफ्फ ये स्वप्न!!

हृदय विदारक

कैसे जन्मा

सुषुप्त मन में ?

रेंगती संवेदनाएं  

कंपकपाएँ

जड़ जमाएं  

भयभीत मन में

अतीत है या

भावी  दर्पण

उथल पुथल है

मन उलझन में

गर वर्तमान  है 

बन के  प्रश्न

 खड़ा हुआ 

नेपथ्य तम में 

क्या स्वप्न जो  

 नयनों में पले

वो भी जले   

आतंकी अगन में  

क्यों  याद नही

रंग सिन्दूरी    

बस रक्त रंग ही

घूमता ज़हन में

जो घुला    मेरी  

 रग रग में

क्या वही

 जन्मता

सुषुप्त मन में?

***************** 

(एक बार कश्मीर में आतंक के साये में पली बालिकाओं से बात करने का मौका मिला उनकी बातों से प्रेरित होकर उस वक्त इस कविता का जन्म हुआ था  जो आज मेरी एक डायरी में मिली तो आप सब से साझा कर रही हूँ )

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Comment by rajesh kumari on February 20, 2013 at 1:09pm

आदरणीय रेखा जोशी जी आपको रचना पसंद आई उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार  

Comment by Rekha Joshi on February 20, 2013 at 1:05pm

आ राजेश जी ,सादर 

नेपथ्य तम में 

क्या स्वप्न जो  

 नयनों में पले

वो भी जले   

आतंकी अगन में  आतंक के साए में सुशुप्त मन के  भाव सुंदर अभिव्यक्ति .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 20, 2013 at 8:08am

विनीता शुक्ला जी आपको रचना के भाव रुचिकर लगे हार्दिक आभार आपका स्नेह् बनाए रखिए

Comment by Vinita Shukla on February 19, 2013 at 10:35pm

आतंक के साये में, सुषुप्त मन में उठने वाली सुगबुगाहट को, सुंदर शब्दों में उकेरा है आपने. बधाई राजेश कुमारी जी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 19, 2013 at 9:12pm

मंजरी पांडेय जी आपको रचना अच्छी लगी आपका हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 19, 2013 at 9:11pm

 अरुण जी कविता की तह तक पहुंच  कर प्रतिक्रिया स्वरूप प्रभावित करती हुई इन पंक्तियों हेतु हार्दिक आभार 

Comment by mrs manjari pandey on February 19, 2013 at 8:27pm

 आदरणीया  राजेश कुमारी जी सुषुप्त  मन की संवेदनाएँ  उथल पुथल करने लग गई हैं।बधाई  झंकृत करने के लिए।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 19, 2013 at 7:08pm

बृजेश जी आपको रचना अच्छी लगी हार्दिक आभार आपका 

Comment by Arun Sri on February 19, 2013 at 6:39pm

कठोर धरती पर जमी हुई रक्त की परत उसे उसर बनाने को उद्धत है ! फिर भी आतंक की विशाल हिमशिलाओं के नीचे दबा स्वप्न का सिन्दूरी बीज आखिर अंकुरित कैसे हुआ ? और हुआ भी तो उसकी हिफाज़त कौन करे ? सोचा तो और भी न जाने कितने प्रश्नचिंह उभर कर सामने आए ! और मैं निरुत्तर उन प्रश्नों के प्रति, उस पीड़ा के प्रति और आपकी कविता के प्रति भी ! सादर !

Comment by बृजेश नीरज on February 19, 2013 at 6:38pm

जो घुला    मेरी  

 रग रग में

क्या वही

 जन्मता

सुषुप्त मन में?

अत्यधिक सुन्दर भाव! 

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