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सप्त सिन्धु घट बह रहे, कर्ण पार स्वर सप्त.

व्योम वृहत निज व्याप्त है, सप्त वर्ण संतृप्त//१//

**************************************************

तर्षण लब्धासक्ति का, करता उर संतप्त.

तर्कण कर तर्पण करें, वृथा फिरें अभिशप्त//२//

**************************************************

मुद्रा, कीर्ति, स्वरुप भ्रम, क्षणिक करें मन तृप्त.

तप्त इष्टि परिशान्तिनी, शक्ति उर अनुज्ञप्त//३//

**************************************************

डॉ. प्राची 

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on January 24, 2013 at 4:53pm

आदरणीया प्राची जी 

सादर 

मैं तो उत्क्रष्ट ही  कहूँगा 

बधाई.

Comment by ram shiromani pathak on January 24, 2013 at 4:36pm

बहुत मार्मिक प्रस्तुति!!!!

Comment by Dr.Ajay Khare on January 24, 2013 at 4:20pm

DR.PRACHI APKI BISHUDH KATHIN HINDI KO PRANAM

.RACHNAO KO DETI HE AAP EK NAYA AYAM .

HINDI SHABDOSH KI AAP BHANDAR HE

.RAALLY AAP RACHNAKAR HE 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 24, 2013 at 4:19pm

डॉ.प्राची, आपकी विशिष्ट अनुभूतियाँ तथा विशिष्ट भाव सटीक शब्दों के साथ प्रस्तुत हो कालजयी हो गये हैं.

सप्त वर्ण संतृप्त  कह कर आपने गूढ़ तथ्यों को सुन्दरता से साझा किया है. इस अभिनव प्रयास पर बहुत-बहुत बधाई.

एक बात :  तप्तिप्सा   क्या तप्त + ईप्सा ही है ? यानि, ज्वलंत चाहना या प्राप्ति की अदम्य ईच्छा ? या कुछ और.. आदरणीया ?


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 24, 2013 at 3:47pm

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी, आपको रचना का शब्द चयन पसंद आया यह जान अच्छा लगा, उक्त पंक्ति (मुद्रा, कीर्ति, स्वरुप भ्रम, क्षणिक करें मन तृप्त.) से समभाव सरोकार रखने के लिए सादर आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 24, 2013 at 3:44pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपकी सराहना पा मन संतुष्ट हुआ,इन दोहों को सराह उत्साहवर्धन करने हेतु बहुत बहुत आभार. सादर.

Comment by SUMAN MISHRA on January 24, 2013 at 2:52pm

अलंकार ,,,आभूषण से भूषित कविता लेकिन समझने में बहुत ही कठिन,,,

Comment by Yogi Saraswat on January 24, 2013 at 2:48pm

तर्षण लब्धासक्ति का, करता उर संतप्त.

तर्कण कर तर्पण करें, वृथा फिरें अभिशप्त

सुन्दर दोहे और बिलकुल शुद्ध हिंदी

Comment by राजेश 'मृदु' on January 24, 2013 at 2:43pm

विशिष्‍ट दोहों के लिए बहुत बधाई, किंतु जो दिखता है वह अर्थ नहीं है, मूल भाव साझा करने तो अधिक आनन्‍द आएगा, सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 24, 2013 at 12:25pm

अद्भुत और सुंदर शब्दों में रचित दोहे बहुत अच्छे लगे । मन तृप्त हुआ । 

बहुत सही कहा है, मुद्रा, कीर्ति यश से मन क्षणिक तृप्त हो सकता है, पर 

स्थायी रूप से नहीं । हार्दिक बधाई स्वीकारे ।

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