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पुकार 

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साहित्य के सिपाहसालारों
धार लेखनी क्यों पडी मंद 
हाहाकार मचा चहुँ ओर 
समर भूमि में छिड़ा है द्वन्द 
यूँ ही अग़र सोते रहे 
लिखेगा कौन इतिहास तुम्हारा 
बेवजह तुमको ढ़ोते रहे
बदनाम होगा नाम हमारा 
इतिहास  तुम्हारा ऐसा न था
रन में वीरों को सींचा था  
लिखते कैसे तुम प्रणय गीत
बैरी हुआ जब अपना मीत
सोने वाले तुम कभी न थे
रोने वाले तुम कभी न थे 
मत रेंगो तुम अब पड़े पड़े   
मौन रहो   अब खड़े खड़े 
दुश्मन का न हो पूरा  सपना 
उठाओ शीघ्र गांडीव अपना 
 
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 
२३-१२-२०१२  

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Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 24, 2012 at 12:16pm

आदरणीया प्राची जी 

सादर 

प्रोत्साहन हेतु आभार 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 24, 2012 at 12:15pm

आदरणीय विजय सर जीसादर अभिवादन 

प्रोत्साहन हेतु आभार 

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 24, 2012 at 11:33am

लेखनी को लिखने के लिए विवश और लेखक को उत्साहित करती बेहतरीन रचना बधाई सर बधाई


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 24, 2012 at 9:45am

साहित्यकारों से सउद्देश्य लेखन का सुन्दर आह्वाहन करती रचना के लिए बधाई आदरणीय प्रदीप जी 

Comment by vijay nikore on December 23, 2012 at 11:01pm

आदरणीय प्रदीप जी,

कई दिलों की आवाज़ आपकी इस रचना में निहित है।

लिखते कैसे तुम प्रणय गीत
बैरी हुआ जब अपना मीत
उद्गारों को आपने इतने अच्छे भाव दिए .. बधाई!
 
सस्नेह और सादर।
विजय निकोर
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 23, 2012 at 8:14pm

स्नेही महिमा जी, सादर 

मेरे भावों को जब मेरी बेटी ने पढ़ लिया तो और लोग भी जानेंगे. 

समर्थन, प्रोत्साहन हेतु आभार जो टूटे हुए तारों में झंकार करी. 

आभार. 

Comment by MAHIMA SHREE on December 23, 2012 at 8:06pm

आदरणीय प्रदीप सर .. आपकी पुकार और दग्द्ध मन का आक्रोश आपकी रचनाओ में खुल के आया है / हम सब आपके पुकार में शामिल है / सादर

कृपया ध्यान दे...

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