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जिसको भीड़ सुलभ है जितनी , उतनी ही ज्यादा तन्हाई ,,,,,,,,,,,,,

खुशियों ने ऊँचे दामों की , फिर पक्की दूकान लगायी 

इक तो गाँव अभावों का मैं , और उपर से ये मंहगाई 
 
कुछ टुकड़ों पर ही पंछी ने , सोने का पिंजड़ा स्वीकारा 
क़ैद हुआ जब संगमरमर में , भूल गया सारी अंगड़ाई 
 
एक नहीं जाने कितने ही , सिन्धु रचे मैंने पन्नों पर 
लेकिन जब जब प्यास लगी , बूँद बूँद से ठोकर खायी 
 
सागर जितना गहरा देखा , तट सब उतने ही ज्यादा प्यासे 
जिसको भीड़ सुलभ  है जितनी , उतनी ही ज्यादा तन्हाई 
 
पीड़ा की धरती के हिस्से घाटे के अनुबंध लिखे हैं 
जब जब मेहँदी धुली हाँथ से , गहरी हुयी ज़ख्म की खाई 

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Comment by Ashok Kumar Raktale on December 18, 2012 at 11:04am

खुशियों ने ऊँचे दामों की , फिर पक्की दूकान लगायी 

इक तो गाँव अभावों का मैं , और उपर से ये मंहगाई .......वाह! क्या भाव जड़े है.
 बहुत बढ़िया रचना बधाई स्वीकारें आदरणीय अजय शर्मा जी.
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 12, 2012 at 4:42am

एक नहीं जाने कितने ही , सिन्धु रचे मैंने पन्नों पर 

लेकिन जब जब प्यास लगी , बूँद बूँद से ठोकर खायी 
आदरणीय अजय शर्मा जी, सादर अभिवादन!
बहुत ही सुन्दर भाव उत्पन्न करनेवाली पंक्तियाँ ! बधाई!
Comment by MAHIMA SHREE on December 11, 2012 at 10:54pm
एक नहीं जाने कितने ही , सिन्धु रचे मैंने पन्नों पर 
लेकिन जब जब प्यास लगी , बूँद बूँद से ठोकर खायी .....

नमस्कार

बहुत ही सुंदर अभिवयक्ति ... बहुत-2 बधाई आपको

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 11, 2012 at 5:57pm

बहुत सुन्दर क्या बात है आदरणीय
बधाई आपको

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 11, 2012 at 1:25pm

खुशियों ने ऊँचे दामों की , फिर पक्की दूकान लगायी

बहुत खूब. 

बधाई.

Comment by वीनस केसरी on December 11, 2012 at 12:34am

शानदार

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