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नहीं छुपता है आशिक से वो आँखों की जुबाँ समझे

अपनी कल की ग़ज़ल में कुछ सुधार किये हैं ग़ज़ल की तकनीकी गलतियाँ दूर करने की कोशिश की है आशा है आप सभी को प्रयास सुखद लगेगा 

हैं हम गैरत के मारे पर ये सौदागर कहाँ समझे
लगाई कीमते गैरत औ गैरत को गुमाँ समझे

छिड़क कर इत्र कमरे में वो मौसम को रवाँ समझे
है बूढा पर छुपाकर झुर्रियां खुद को जवाँ समझे

गुलिस्ताँ से उठा लाया गुलों की चार किस्में जो
सजा गुलदान में उनको खुदी को बागवाँ समझे

बने जाबित जो ऑफिस में खुदी को कैद करता है
घिरा दीवार से हरदम फलक को आसमाँ समझे

जिसे ऐ सी की आदत हो न मौसम की खबर रखता
वो झांके खिडकियों से और कोहरे को धुआँ समझे

किया इंकार चाहत से वो थी मगरूर मासूका
समझने को रखा न कुछ के आशिक खामखाँ समझे

बनाता है जो सबके घर करे दिन रात मजदूरी
उसे हासिल नहीं हो छत वो सड़कों को मकाँ समझे

छुपाने हाले दिल अपना करो तुम लाख कोशिश पर
नहीं छुपता है आशिक से वो आँखों की जुबाँ समझे

बिछड़ कर आप हमसे जी सकेंगे पूछते थे वो
रहे नादाँ के नादाँ हम इशारे वो कहाँ समझे

रही हसरत मगर जो उड़ न पाया आसमाँ छूने
वही दरिया में बहते दीप देखे कहकशाँ समझे

संदीप पटेल "दीप"

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Comment by Ashok Kumar Raktale on December 17, 2012 at 9:13am

गुलिस्ताँ से उठा लाया गुलों की चार किस्में जो
सजा गुलदान में उनको खुदी को बागवाँ समझे.......वाह!

बढ़िया गजल के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीय संदीप जी.

 

 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 7, 2012 at 4:51pm

अब सही हो गया भाई |

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 7, 2012 at 4:17pm


क्या हुश्ने मतला में  ये छूट मिल सकती है सर जी

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 7, 2012 at 4:15pm

आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम
आपका तहे दिल से शुक्रिया इस ग़ज़ल पर अपनी बेशकीमती प्रतिक्रिया रखने हेतु 
ये शेर अंत में लिखा और मतला बना दिया और भूल गया की पहले जिसे मतला बनाया था वो हुश्ने मतला हो चुका है
मैंने कुछ सुधार किया है 
इक नज़र फरमा के कुछ गुर और सिखाइए
सादर आभार आपका सर जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 7, 2012 at 4:01pm

वीनस भाई मैं भी आदरणीय सौरभ सर से सहमत हूँ कि, कोहरा भी एक प्रचलित शब्द है ज्यादातर लोगों को कहते सुना है.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 7, 2012 at 3:52pm

संदीपभाई, हुस्ने मतला सही रखने के बावज़ूद मतला में ही कैसे ’वाँ’ को काफ़िया बना लिया आपने? खैर इसपर पहले ही कहा जा चुका है.

वीनस जी, जैसाकि मैं जानता हूँ, कोहरा भी एक प्रचलित शब्द है. इसी से कोहराभोंपू उपकरण का शब्द बनता है जो घने कोहरे में सावधान होने के लिये बजाया जाता है. foggy का अर्थ कोहरेदार भी होता है.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 7, 2012 at 3:44pm

आदरणीय वीनस सर जी आपके कहे अनुसार मैंने कुछ बदलाब किये हैं शायद आपको पसंद आये इक बार फिर से आपने मेरी गलती की और इंगित कर मुझे बचा लिया 
ये स्नेह मुझे पर यों ही बनाये रखिये आभारी हूँ आपकी दी गयी नसीहतों का
जल्दबाजी में गलतियाँ कर बैठता हूँ पता ही नहीं चलता है

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 7, 2012 at 3:41pm

आदरणीय अजय शर्मा जी , आदरणीय राजेश झा जी , आदरणीय वीनस सर जी , आदरणीय गणेश बागी सर जी , आदरणीय अरुन जी , आदरणीया राजेश कुमारी जी
सादर प्रणाम आप सभी को
ग़ज़ल को पसंद करने और इस हौसलाफजाई लिए आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया और सादर आभार
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 7, 2012 at 11:41am

संदीप जी बेहतरीन ग़ज़ल है एक से बढ़कर कर एक अशआर हैं पढ़कर मज़ा गया. वीनस भाई की भी बातों पर ध्यान दें

Comment by वीनस केसरी on December 7, 2012 at 3:30am

सुन्दर ग़ज़ल है भाई

कई अशआर में बहुत अच्छा ख्याल बाँधा है और कहन भी स्तरीय है

कुछ बातों पर ध्यान दें तो ग़ज़ल निर्दोष हो जाये ....
मतले के कवाफी में हर्फे-रवी "व" बदल दें नहीं तो ग़ज़ल में काफ़िया ऐब पैदा हो जा रहा है
आपने एक शेअर में "न" लिख कर उसे २ वज्न में बाँधा है या तो उसे "ना" लिखिए या वज्न दुरुस्त कीजिये
मेरे ख्याल से कोहरा को उर्दू में काफ+ वाव+ हे+ रे + अलिफ़ लिखा जाता है इसलिए इसका वज्न कुहरा अनुसार २२ होना चाहिए

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