For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मानव मणि: नर से नारायण - स्वामी विवेकानंद -संजीव 'सलिल'

मानव मणि:
नर से नारायण - स्वामी विवेकानंद
संजीव 'सलिल'

*

'उत्तिष्ठ, जागृत, प्राप्य वरान्निबोधत।'  


'उठो, जागो और अपना लक्ष्य प्राप्त करो।' 


'निर्बलता के व्यामोह को दूर करो, वास्तव में कोई दुर्बल नहीं है। आत्मा अनंत, सर्वशक्ति संपन्न और सर्वज्ञ  है। उठो! अपने वास्तविक रूप को जानो और प्रगट करो। हमारे अन्दर जो भगवान है उसकी सर्वोच्च सत्ता का जयघोष करो, उसे अस्वीकार मत करो।' 

आत्म प्रेरणा, मानवीय गरिमा, राष्ट्रीय चेतना, वैश्विक सद्भाव तथा सर्व समानता के कालजयी संदेश के वाहक, नर के अंदर सुप्त नारायण से साक्षात्कार करनेवाले, सांस्कृतिक क्रांति के अग्रदूत स्वामी विवेकानंद के उक्त विचार पाषाण को भी सम्प्राणित करने में समर्थ हैं। मुगल तथा आंग्ल पराधीनता से पराभूत भारत के आम लोगों को मानवीय गरिमा और राष्ट्रीय अस्मिता का अमर सन्देश देने के साथ भारतीय दर्शन, मानव मूल्यों तथा पारंपरिक सनातन विश्व बन्धुत्व भावना की गौरव ध्वजा सकल विश्व में फहराकर देशवासियों को आत्म गौरव से ओत-प्रोत कर देने वाले स्वामी विवेकानंद अपनी मिसाल आप हैं। 'एकोहम द्वितीयोनास्ति' वास्तव में वे एक ही हैं, उन जैसा दूसरा न हुआ, न है, न होगा।

धरावतरण:

12 जनवरी 1863 को ग्राम सिमूलिका, कलकत्ता (कोलकाता) प. बंगाल में एक संपन्न कायस्थ परिवार के प्रतिष्ठित हाई कोर्ट वकील विश्वनाथ दत्त तथा उनकी सहधर्मिणी भुवनेश्वरी देवी को तमाच्छादित भारत में आत्मविश्वास-पुरुषार्थ तथा परोपकार का सूर्य उगानेवाले अग्रदूत के धरावतरण का माध्यम बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। विश्व के नाथ और भुवन के ईश्वर की यह देन एक नया इतिहास रचने में समर्थ हुई।

शैशव:

शैशव से ही माँ के मुख से पुराणों, रामायण तथा महाभारत की कथाएँ सुन-सुनकर शिशु नरेंद्र का विवेक जागृत होता गया। 6 वर्षीय नरेंद्र को शिक्षारम्भ में शिक्षक द्वारा की गयी डाँट-फटकार नहीं रुची। नरों का इंद्र अन्य किसी से क्यों और कैसे शासित होता? वे अड़ियल और जिद्दी हो गये किन्तु अन्य शिक्षक से स्नेहपूर्ण व्यवहार पाते ही उनकी कुशाग्र मेधा कीर्तिमान बनाने लगी। उन्हें पढ़ाया कम जाता, वे समझ अधिक जाते। घर पर प्राथमिक स्तर का अध्ययन पूर्ण होने पर वे मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में प्रविष्ट कराये गये तथा अपनी निर्भीकता, सत्यप्रियता, कुशाग्रता, सदाशयता एवं भुजबल से बाल-नायक बन गये।

सत्यप्रियता:

एक दिन कक्षा में अध्ययन काल के मध्य बच्चों को बातचीत करते पाकर शिक्षक ने खड़ा कर दिया तथा पूछा की वे क्या पढ़ा रहे थे? केवल नरेंद्र ही सटीक उत्तर दे पाया, शेष छात्र मौन रहे। शिक्षक ने अनुमान किया कि केवल नरेंद्र पढ़ाई पर ध्यान दे रहा था। अतः। शिक्षक ने शेष छात्रों को खड़े रहने की सजा देकर नरेंद्र को बैठने की अनुमति दी किन्तु नरेंद्र फिर भी खड़ा रहा। शिक्षक के पूछने पर उसने कहा की बात तो मैं ही कर रहा था शेष सहपाठी तो सुन रहे थे। शिक्षक ने नरेंद्र की सत्यप्रियता तथा निडरता को सराहते हुए सभी विद्यार्थियों को सजा से मुक्त कर दिया।

परोपकारिता:

एक मेले में जाने पर जेबखर्च के लिए माँ से मिले 1 रुपए में से नरेंद्र ने मनोरंजन या खाने-पीने की सामग्री लेने के स्थान पर 12 आने (75 पैसे) से एक शिवलिंग खरीदा। तभी एक छोटा सा बच्चा रोते हुए निकट से निकला। नरेंद्र ने बच्चे से उससे रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि  उससे 4 आने (25 पैसे) खो गये हैं... घर पर मार पड़ेगी। नरेंद्र ने उसे चुप करते हुए अपनी जेब से निकालकर 4 आने उसे दे दिए।

कुछ देर बाद नरेंद्र ने एक बच्चे को कार के नीचे आते देखा। उसने अपने प्राणों की चिंता छोड़कर शिवलिंग फेंकते हुए दौड़ लगायी और बच्चे को उठाकर बचा लिया। पल भर की देर बच्चे का अंत कर देती। फेंकने से अभी-अभी खरीदा शिवलिंग टूट गया था किन्तु नरेन्द्र बच्चे की प्राण-रक्षा कर प्रसन्न था।

एकाग्रता:

बचपन में नरेंद्र नटखट, चंचल तथा क्रोधी भी था किन्तु शिव का नाम लेने या सर पर पानी पड़ते ही वह शांत हो जाता। उसे ध्यान में रहना खूब भाता था। एक दिन वह ध्यान कर रहा था तभी एक विशाल सर्प पूजा गृह में घुस आया, सब घबरा गये, चीख-पुकार मच गयी, किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? छेड़ने पर सर्प नरेंद्र को डँस न ले, सर्प नरेंद्र के निकट गया और स्पर्श होते ही पलटकर लौट गया किन्तु नरेंद्र का ध्यान भंग नहीं हुआ।

नरेंद्र को घर के समीप बरगद के वृक्ष पर चढ़ना-लटकना खूब भाता था। कभी चोट न लग जाए इस भय से एक दिन दादा जी ने बच्चों से कहा कि उस पेड़ पर ब्रम्हराक्षस रहता है वहाँ कोई न जाए। शेष बच्चे तो चुप रहे किन्तु नरेंद्र तुरंत बोला कि  वह बार-बार उस पेड़ पर चढ़ेगा, लटकेगा और ब्रम्हराक्षस मिलेगा तो उसे पटकेगा।

आस्था:

किशोर होते नरेंद्र को धर्म-कर्म में बहुत आस्था थी, होती भी क्यों न, वह सकल सृष्टि के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखनेवाले कर्मदेवता के आराधक कायस्थ कुल में उत्पन्न हुआ था। उसे अनेक भजन, गीत, कथा-प्रसंग आदि कंठस्थ थे। तन्मय होकर मधुर स्वर में भजन गाना उसके मन भाता था। नरेंद्र को संगीत, गायन, मुक्केबाजी, कुश्ती तथा क्रिकेट का शौक था। अवढरदानी शिव उसके आराध्य थे। ब्रम्हचारी, प्रभुभक्त, सेवाव्रती, पराक्रमी, निडर, परिश्रमी, परोपकारी, निष्काम तथा विनम्र हनुमान का चरित्र उसे सर्वाधिक पसंद था। शैशव से ही नरेंद्र में इन गुणों के बीज मिलते हैं जो आयु बढ़ने के साथ-साथ क्रमश: अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होते गए। अन्तत: सकल विश्व को इन सद्गुणों का सुफल मिला।

रायपुर प्रवास:

सं 1875 में 14 वर्ष की किशोरावस्था में बीमार नरेंद्र को स्वास्थ्य लाभ के लिये कोलकाता से रायपुर लाया गया। रायपुर में नरेंद्र को स्वाध्याय का भरपूर अवसर मिला। कोलकाता लौटने पर उसने एंट्रेंस का 2 वर्ष का पाठ्यक्रम केवल 1 वर्ष में पूरा किया तथा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। परीक्षा के 2 दिन पूर्व नरेंद्र को ज्ञात हुआ की उसके पाठ्यक्रम में रेखा गणित भी है जिसे उसने पढ़ा ही नहीं है। रात-रात भर जागकर उसने 4 पुस्तकें पूरी पढ़ीं और परीक्षा में प्रथम श्रेणी के अंक पाये। यह प्रसंग आज के उन विद्यार्थियों के लिए एक सबक है जो साल भर कक्षाओं में जाने के बावजूद प्रश्नोत्तर पुस्तकों से परीक्षा देते हैं।  

सत्य की पिपासा:

दर्शन, साहित्य और इतिहास की पुस्तकें पढ़े बिना नरेंद्र का एक दिन भी नहीं गुजरता था। पाठ्यपुस्तकें तो उसके लिए परीक्षा उत्तीर्ण करने का साधन मात्र थीं। नरेंद्र का ज्ञान कई विषयों में अपने शिक्षकों से भी अधिक गहन तथा  व्यापक था। देकार्त का संदेहवाद, ह्यूम और बेक का नास्तिकतावाद, डार्विन का विकासवाद, स्पेंसर का अज्ञेयवाद, शैली की कविताएँ, हीगल का दर्शन, फ्रांसीसी क्रांति, संस्कृत काव्य शास्त्र,  वेद-पुराण-उपनिषद, राजा राम मोहन राय और ब्रम्ह समाज का साहित्य नरेंद्र को बहुत प्रिय थे। वह जो भी पढ़ता उसमें सनातन सत्य की तलाश करता था।

परमहंस से भेंट:

सत्य की तलाश नरेंद्र को ब्रम्ह समाज के संस्थापक देवेन्द्रनाथ ठाकुर तक ले गयी किन्तु वह संतुष्ट न हो सका। नवंबर 1981 में एक दिन पड़ोसी सुरेन्द्रनाथ मित्र के आवास पर आयोजित सत्संग गोष्ठी में नरेंद्र ने सुमधुर भजन प्रस्तुत किया। यहीं नरेंद्र की भेंट दक्षिणेश्वर काली मन्दिर के पुजारी रामकृष्ण परमहंस से पहली बार हुई जिन्होंने नरेंद्र को दक्षिणेश्वर बुलाया। कुछ दिनों बाद नरेंद्र मित्रों के साथ दक्षिणेश्वर गया, परमहंस के कहने पर एक भजन भी सुनाया। परमहंस उन्हें एकांत कक्ष में ले गये तथा बोले: 'अरे! तू इतने दिनों कहाँ रहा? मैं कब से तेरी बाट जोह रहा हूँ?... मैं जानता हूँ तू सप्तर्षि मंडल का महर्षि है, नर रूपी नारायण है, जीवों के कल्याण की कामना से तूने देह धारण की है।'

नरेंद्र स्तंभित रह गया तथा इसे परमहंस का प्रलाप मात्र समझा किन्तु परमहंस ने उससे पुनः अकेले मिलने आने का वचन ले लिया। नरेंद्र ने सभी आध्यात्मिक जनों की तरह परमहंस से पूछा कि क्या उन्होंने ईश्वर को देखा है? उत्तर मिला: 'हाँ वत्स! मैंने ईश्वर को देखा है। जैसे तुम्हें देख रहा हूँ वैसे ही, इससे भी अधिक निकटता और स्पष्टता के साथ मैंने उन्हें देखा है। तुम मेरी बतायी राह पर चलो तो तुम्हें भी दिखा सकता हूँ।' इससे पूर्व किसी भी व्यक्ति ने इस आत्म विश्वास से ईश्वर को देखने-दिखने का दावा नहीं किया था।

एक माह पश्चात् नरेंद्र के पहुँचने पर परमहंस के स्पर्श मात्र  से नरेंद्र भावाविष्ट हो गया, उसे अपना अस्तित्व शून्य में विलीन होता प्रतीत हुआ। वह चिल्ला उठा: 'अजी! आपने मेरी कैसी अवस्था कर दी? मेरे माँ-बाप है, परिवार है?' परमहंस हँस पड़े, नरेंद्र उनके दिखाये दिखाये अनुसार उसके लिये  विधि द्वारा निर्धारित रास्ते पर चल पड़ा था किन्तु  अब तक ब्रम्ह समाज के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त न हो सका था तथा साकार ब्रम्ह की अवधारणा के प्रति संदेह में था।

पारिवारिक संकट:

सन 1884 में नरेंद्र के पिता का देहावसान हो गया। आर्थिक संकट में फँसे परिवार के लिए जीवन-यापन कठिन हो गया। नरेंद्र ने ईश्वरघंद्र विद्यासागर विद्यालय में अध्यापन कार्य किया। नरेंद्र ने परिवार को कठिनाई से उबारने के लिये माँ काली से वर माँगने के लिये परमहंस से निवेदन किया। परमहंस ने कहा: 'मैंने आज तक माँ काली से कभी अपने लिये भी कुछ नहीं माँगा और तू तो माँ काली को मानता नहीं फिर तेरे लिए वे किसी और की प्रार्थना क्यों स्वीकार करने लगीं?... आज मंगलवार है, रात को तू खुद जाकर माँ से माँग ले, तू जो माँगेगा, तुझे मिलेगा। नरेंद्र अर्धरात्रि में माँ काली के मन्दिर में गया किन्तु विवेक, ज्ञान, भक्ति और वैराग माँग बैठा। बाहर आकर परमहंस को बताया तो उन्होंने दुबारा मंदिर में भेजा किन्तु नरेंद्र ने फिर यही वर माँग लिया। इस पर परमहंस ने कहा: ' तू दो बार सोच कर गया फिर भी न माँग सका, संसार-सुख तेरे भाग्य में नहीं है... फिर भी परिवार को अन्न-वस्त्र की कमी नहीं होगी।'।

सन्यास:

सन 1885 में नरेंद्र को सन्यास की दीक्षा देने के कुछ माह बाद 11 अगस्त 1886 को परमहंस ने नरेंद्र के मस्तक पर अपने दाहिने चरण का अंगूठा स्पर्श कराकर अपनी समस्त अध्यात्मिक उपलब्धियाँ  नरेंद्र को सौंपते हुए कहा: 'आज मैंने अपना सब कुछ तुम्हें दे दिया है।  मैं निरा कंगाल हूँ। मेरा कुछ नहीं है। इस शक्ति से संसार का हित करके ही लौटना।' नरेंद्र गहन भाव समाधी में डूब गया, लम्बे समय बाद समाधि भंग हुई तो वह बदल चुका था। विवेक और आनंद से समृद्ध नरेंद्र जग-कल्याण की क्षमता पाकर स्वामी विवेकानंद हो गया  था। जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर 4 दिन बाद ही 15 अगस्त 1886 को परमहंस देह त्याग कर माँ काली में लीन हो गए।

देश दर्शन:

गुरु से प्राप्त विवेक और ज्ञान के महाप्रसाद की  विरासत सबको वितरित करने के लिये स्वामी विवेकानंद जनता जनार्दन से साक्षात् हेतु निकल पड़े। सन 1891 में अलवर भ्रमण के समय महाराजा द्वारा मूर्ति पूजा पर संदेह व्यक्त किया। स्वामी जी ने संदेह का निराकरण करने के लिए दीवार पर लगी महाराजा की तस्वीर उतरवायी  और दरबारियों से उस पर थूकने को कहा। किसी ने भी यह स्वीकार नहीं किया। तब स्वामी जी ने बताया की जिस प्रकार तस्वीर का कागज़ महाराज न होने पर भी उस पर थूकना महाराजा का असम्मान होगा क्योंकि कागज़ पर बने चित्र से महाराजा के अस्तित्व का भान होता है उसी प्रकार मूर्ति भगवान् न होने पर भी मूर्ति में भगवान की अवधारणा कर बनाई जाने से उसमें भगवान का आभास होता है।

स्वामी जी ने सन 1990 में गुजरात, राजस्थान, हैदराबाद, मैसूर, नालंदा, सारनाथ, आगरा आदि सहित अनेक स्थानों का भ्रमण किया। खेतड़ी के राजा ने स्वामी विवेकानंद की अगवानी करते हुई उनकी पालकी स्वयं अपने कंधे पर उठायी। स्वामी जी जात-पाँत, छुआछूत, अंधविश्वास, पाखंड आदि के घोर विरोधी थे। अजमेर में उनहोंने  एक मुसलमान के निवास पर भोजन किया। संकीर्ण दृष्टि वालों ने आपत्ति की तो उन्होंने कहा: 'मैं सन्यासी हूँ, सबमें समान रूप से ईश्वर को देखता हूँ।' उनके गुरु परमहंस ने सनातन हिन्दू रीति, मुसलमान उपासना पद्धति तथा ईसाई पंथानुसार आराधना कर ईश्वर की अनुभूति कर कहा था कि  सभी रास्ते एक ही ईश्वर तक जाते हैं। स्वामी जी उनके सच्चे अनुयायी सिद्ध हुए।


सर्व-धर्म समन्वय:

समस्त भारत का परिभ्रमण कर जनता जनार्दन से साक्षात् कर अंत में स्वामी जी तीन समुद्रों के संगमस्थल पर जाकर सागर तट से 2 फर्लांग दूर उस सिद्ध शिला तक तैर कर पहुँचे जहाँ भगवती पार्वती ने शिव-प्राप्ति हेतु तपस्या की थी। वे 2 दिनों तक अखंड भाव समाधि में लीन रहे। उन्हें मलिन वेश में भारत माता के दर्शन हुए। उन्होंने मोक्ष अभिलाषा के स्थान पर दरिद्र नारायण की सेवा का संकल्प किया। स्वामी जी ने भारत के कालजयी आध्यात्मपरक दर्शन को पश्चिम जगत तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया।

दिग्विजय यात्रा:

गुरुदेव द्वारा सौंपे गयेए मानव कल्याण के महा अभियान को पूर्ण करने के लिए स्वामी जी ने विश्व धर्म सम्मलेन को अच्छा अवसर समझा और बिना किसी आमंत्रण या परिचय के वे भगवान् के भरोसे बिना रूपए-पैसों के 31 मई 1893 को बंबई (मुंबई) से अकेले विदेश पर निकल पड़े। अनेक बाधाओं-संकटों का अविचलित रहकर सामना करते हुए वे शिकागो पहुँचे। प्रारंभ में आयोजकों ने उन्हें प्रवेश देने या बोलने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया किन्तु अंत में समापन के पूर्व मात्र 5 मिनिट संबोधन की अनुमति दी गयी। प्रातः से संध्या तक अनेक वक्ता अपने-अपने धर्म के पक्ष में संबोधनों में शुष्क तथा नीरस तर्क प्रस्तुत कर चुके थे। श्रोता महाशयों, महोदयों, भद्र पुरुषों-महिलाओं आदि संबोधनों से त्रस्त हो चुके थे। स्वामी जी ने प्रेमपूर्ण वाणी में जैसे ही 'मेरे अमरीकी भाइयों और बहिनों' कहा, सभागार करतल ध्वनि से गूँज उठा। 5 मिनिट के स्थान पर स्वामी जी को घंटों सुना गया।  अपने प्रथम उद्बोधन में स्वामी जी ने देश-काल से परे विश्व धर्म की सनातन अवधारणा का निरूपण किया। अगले दिन अमरीका के सभी प्रमुख दैनिक  स्वामी जी की प्रशस्ति में समाचारों और लेखों से भरे थे। न्यूयार्क हेराल्ड ने उन्हें 'सर्वश्रेष्ठ व्याख्याता', तथा प्रेस ऑफ़ अमेरिका ने ''जादू के से असरवाला अग्रगण्य सभासद' कहते हुए उनका अभिनन्दन किया। 17 दिन के सम्मेलन में  10 बार स्वामी जी के व्याख्यान हुए पर लोगों की और अधिक सुनने की प्यास तृप्त न हुई।

अमेरिका के बाद स्वामी जी ने इंग्लॅण्ड तथा जर्मनी में भी सनातन धर्म तथा भारतीय दर्शन की विजय पताका फहरायी। प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर से स्वामी जी ने भेंट की। मार्गरेट ईव नोबल (भगिनी निवेदिता), क्रिस्टीन, गुडविन, सीविचर आदि अनेक समर्थक तथा भक्त उनके  उनके अभियान में सहायक हुए।

श्री रामकृष्ण मिशन:

3 वर्ष विदेश भ्रमण के पश्चात् स्वामी जी ने भारत आकर अंगरेजी मासिक ब्रम्हवादिन तथा प्रबुद्ध भारत और बांगला मासिक उद्बोधन के माध्यम से परमहंस के अमर सन्देश प्रसारित किये। मानव कल्याण का लक्ष्य लेकर स्वामी जी ने 1 मई 1897 को श्री राम कृष्ण मिशन की स्थापना की। पतितों, अछूतों, दलितों आदि के लिए स्वामी विवेकानंद ने मंदिरों के द्वार खोलकर सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया तथा घोषणा की: 'समस्त जातियों के पीड़ित-दुखी, दीन-दरिद्र नर रूपी नारायण ही मेरा विशिष्ट आराध्य दैवत है।'' 

महाप्रयाण:

स्वामी जी सन 1899-1900 में  अमेरिका, इंग्लॅण्ड, फ़्रांस, ओस्ट्रेलिया, बाल्कन गणराज्य, ग्रीस तथा मिस्र का भ्रमण कर विश्व मानव कल्याण की अवधारणा का प्रसार कर 1 दिसंबर 1900 को स्वदेश लौटे। वे अनवरत यात्राओं तथा लगातार मानसिक-शारीरिक श्रम और संघर्ष के कारण अत्यंत शिथिल तथा श्रांत-क्लांत हो गये थे। 4 जुलाई 1902 को स्वामी जी ने अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस द्वारा सौंपे गये कार्य को पूर्ण कर इहलोक से बिदा ली। प्रसिद्ध फ्रांसीसी साहित्यकार रोम्यां रोलां ने स्वामी जी के महाप्रयाण का वर्णन निम्नानुसार किया है: '7 बजे मठ में आरती के लिये घंटी बजी। वे बंद कमरे में चले गये और गंगा जी की ओर देखने लगे। फिर उन्होंने उस छात्र को जो उनके साथ था बाहर भेज दिया, कहा: 'मेरे ध्यान में विघ्न नहीं आना चाहिए'. 45 मिनिट बाद उन्होंने उसे वापिस बुलाया, सब खिड़कियाँ खुलवायीं और चुपचाप बायीं करवट लेट गये और ऐसे ही लेटे रहे। वे ध्यानमग्न प्रतीत होते थे। घंटे भर बाद उन्होंने करवट बदली, गहरी निश्वास छोडी, पुतलियाँ पलकों के मध्य में स्थित हो गयीं और गहरा निश्वास... फिर चिर मौन छा गया। 39 वर्ष की अल्पायु में स्वामी विवेकानंद का स्वर्गवास हो गया किन्तु वे जैसा और जितना महान कार्य कर गये वह कई व्यक्तियों के लिए सौ वर्षों में भी संभव नहीं था। ऐसा कार्य उनके जैसा कर्मयोगी ही कर सकता था।

*****

Views: 1133

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Ashok Kumar Raktale on October 15, 2012 at 8:15am

परम आदरणीय सलिल जी

                       सादर प्रणाम, स्वामी विवेकानंद कि जीवनी कि सुन्दर प्रस्तुति गागर में सागर का एक उदाहरण साबित हो रहा है. सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 15, 2012 at 7:51am

कृतज्ञ राष्ट्र स्वामीजी की एक सौ पचासवीं जयन्ती मना रहा है. आदरणीय आचार्यजी आपकी प्रस्तुति इस भाव-समर्पण में सर्वसुन्दर पुष्प की तरह समर्पित हुई है.

स्वामीजी के प्रयाण के कई-कई तथ्य सामान्य जन को बहुत कुछ इंगित करते हैं. उनका वृंदावन के लिये निकलना, रास्ते में वाराणसी में ही स्वास्थ्य का खराब होना, पत्र द्वारा अपने मित्र को सूचना दे कर यात्रा को निरस्त करना, बेलूर मठ वापस आना और अपने जीवन के चालीस वर्ष बिना पूरा किये ठाकुरजी के भविष्यवाणी-सदृश कथ्य का इस संसार द्वारा पूर्ण होते देखना. हर कुछ ! या, उनकी महा-समाधि के ठीक एक रात पूर्व तथा उस सायं की घटनाएँ सामान्य मस्तिष्क को विस्मित कर देती हैं. परन्तु, दृढ़वत् स्थापित भी करती हैं कि हर प्राण का जीवन-प्रस्फुटन विशेष उद्येश्य तथा निजी कर्मफल निस्तारण हेतु ही हुआ करता है, और कुछ नहीं.

स्वामीजी इतिहास के उन पन्नों के पात्र नहीं हैं जहाँ हमारी सहज पहुँच भले ही वैचारिक ही क्यों न हो तक नहीं होती. बल्कि वे हमारे-आपके बीच के व्यक्ति हैं जो शिक्षा तथा मनस दोनों रूपों से अत्यंत मेधावी होते हुए भी बेरोजगारी के दंश को भोगते-झेलते रहे. और... उनकी भेंट (?) ठाकुरजी से हुई !

स्वामीजी से सम्बन्धित कन्याकुमारी के शिला-स्मारक और उक्त केन्द्र से चौदह वर्षों से मेरा व्यक्तिगत जुड़ाव स्वामीजी के प्रति ’मेरे अपने’ के भाव से आप्लावित कर देता है.

प्रस्तुत सूचनात्मक आलेख हेतु आपका सादर आभार.

Comment by sanjiv verma 'salil' on October 15, 2012 at 6:55am

त्रुटि सुधार :
कृपया, रायपुर प्रवास के अंतर्गत १४ के स्थान पर १२, परमहंस से भेंट के अंतर्गत १९८१ के स्थान पर १८८१
तथा देश दर्शन के अंतर्गत १९९० के स्थान पर १८९० पढ़िए. टंकण त्रुटि हेतु खेद है.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 14, 2012 at 9:33pm

नरेंद्र से विवेकानंद बने और सदियों तक महानतम विद्वानों में श्रेष्ठतम स्वामी विवेकनद को शत शत नमन जिन्होंने अखिल विश्व में भारत को पुनः विश्व गुरु मानने पर बाध्य कर दिया और १७ दिन की अमरीका यात्रा में १० बार प्रभाव पूर्ण व्यखानो से समूचे विश्व का ध्यान आकर्षित किया | वे आज भी प्रासंगिक और प्रेरणा स्त्रोत है और कल भी रहेंगे |

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Gajendra shrotriya replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-177
"सादर प्रणाम🙏 आदरणीय चेतन प्रकाश जी ! अच्छे दोहों के साथ आयोजन में सहभागी बने हैं आप।बहुत बधाई।"
yesterday
Gajendra shrotriya replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-177
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी ! सादर अभिवादन 🙏 बहुत ही अच्छे और सारगर्भित दोहे कहे आपने।  // संकट में…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-177
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Saturday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-177
"राखी     का    त्योहार    है, प्रेम - पर्व …"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-177
"दोहे- ******* अनुपम है जग में बहुत, राखी का त्यौहार कच्चे  धागे  जब  बनें, …"
Saturday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post कुंडलिया
"रजाई को सौड़ कहाँ, अर्थात, किस क्षेत्र में, बोला जाता है ? "
Thursday
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post पूनम की रात (दोहा गज़ल )
"मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय "
Thursday
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post कुंडलिया
"बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय  सौड़ का अर्थ मुख्यतः रजाई लिया जाता है श्रीमान "
Thursday
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post अस्थिपिंजर (लघुकविता)
"हृदयतल से आभार आदरणीय 🙏"
Thursday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय सौरभ भाई , दिल  से से कही ग़ज़ल को आपने उतनी ही गहराई से समझ कर और अपना कर मेरी मेनहत सफल…"
Wednesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय सौरभ भाई , गज़ाल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका ह्रदय से आभार | दो शेरों का आपको…"
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"इस प्रस्तुति के अश’आर हमने बार-बार देखे और पढ़े. जो वाकई इस वक्त सोच के करीब लगे उन्हें रख रह…"
Wednesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service