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मै वृक्ष हो गया.

पौधा था छोटा था
लगता था अब गया तब गया
कभी बारिश की बुँदे
सुहानी लगती थी
कभी लगता डूब गया डूब गया,
हिम्मत करके टहनियां बढ़ाई,
नयी कोपलें बिखराई,
अब गगनचुम्बी वृक्षों को
छूने लगी टहनियां,
लगा मै भी खडा हो गया खडा हो गया,
मगर पुष्पों के खिलने तक
अहसास नहीं हो पाया बड़ा होने का,
फलों से लदते ही लगा
मै बड़ा हो गया बड़ा हो गया,
मै भूल गया
वो छुटपन का अहसास
ना डर रहा कुछ खोने का
ना उत्साह और कुछ पाने का,
दे रहा हूँ आश्रय आने जाने वालों को
और कुछ मीठे फल खाने को,
क्योंकि मै वृक्ष हो गया वृक्ष हो गया.

Views: 723

Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on May 20, 2012 at 7:57am

महिमा जी
        सादर, आपको रचना पसंद आयी, मेरे लिए प्रोत्साहन है. धन्यवाद.

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 20, 2012 at 7:55am

जवाहर जी भाई नमस्कार,
                                     काव्य रचना को सराहने के लिए धन्यवाद. आपने वृक्ष के स्वभाव का एक और उदाहरण पेश किया है.
                                      भाई जी उज्जैन तो धार्मिक नगरी है आप आयें तो प्रसाद तो जरूर ही पायेगें.स्नेह बनाए रखें.धन्यवाद.

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 20, 2012 at 7:49am

आदरणीय प्रदीप जी
               नमस्कार, आपने मेरी काव्य रचना को और विस्तार दिया आभार. हम भी वृक्ष हो सकते हैं यदि और और पाने की लालसा छोड़ दें, हमारी छाँव में बैठे व्यक्ति को एहसास दिलाना छोड़ दें.धन्यवाद.

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 20, 2012 at 7:42am

आदरणीय निलेश जी, राजेश जी,डॉ. बाली जी आप सभी का आभार आपने रचना के भावों को समझने एवं सराहने के लिए. धन्यवाद.

Comment by MAHIMA SHREE on May 19, 2012 at 9:02pm

वो छुटपन का अहसास
ना डर रहा कुछ खोने का
ना उत्साह और कुछ पाने का,
दे रहा हूँ आश्रय आने जाने वालों को
और कुछ मीठे फल खाने को,
क्योंकि मै वृक्ष हो गया वृक्ष हो गया.

आदरणीय अशोक सर , बहुत-२ बधाई ,

बहुत ही सुंदर अभिवयक्ति

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 19, 2012 at 8:27pm

ना डर रहा कुछ खोने का
ना उत्साह और कुछ पाने का,
दे रहा हूँ आश्रय आने जाने वालों को
और कुछ मीठे फल खाने को,
क्योंकि मै वृक्ष हो गया वृक्ष हो गया.

वृक्ष का एक और धर्म है वो शायद रह  गया

पत्थर से जब मारा तो बदले में फल दे गया  
प्रणाम भाई  जी, और बधाई! घर आने पर तो अवश्य मिलेगी खाने को मिठाई! 
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 19, 2012 at 6:03pm

आदरणीय अशोक जी सादर अभिवादन 

ठीक ही है आप बड़े हो गए 
लगाये गए थे खड़े हो गए 
खिलते हैं पुष्प योवन के 
फलते हैं फूल जीवन के 
अहसास होता है बोझ कन्धों पे 
लगता है हम अब बड़े हो गए 
काश जो फलदार हैं दूसरों की भूख मिटा सकें इन वृक्षों की तरह 
मानव से वृक्ष होना ही ठीक है 
बधाई, स्नेह  बनाये  रखिये . 
Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on May 19, 2012 at 2:19pm

अशोक भाई सुंदर रचना के लिए दिली मुबारकबाद कुबूल करें ! सुंदर भाव व सुंदर शब्दों में सुंदर रचना बन पड़ी है !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 19, 2012 at 1:57pm

बहुत खूबसूरत बिम्ब बड़े होने का एहसास ,सुन्दर भाव ..इस प्यारी रचना के लिए बधाई 

Comment by Nilansh on May 19, 2012 at 12:23pm

bahut acchi nazm

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