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       (चतुष्क-अष्टक पर आघृत)

पदपदांकुलक छंद (१६ मात्रा अंत में गुरू)

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सपनों पर जीत उसी की है,

जिसके मन में अभिलाषा है.

वह क्या जीतेंगे समर कभी,

जिनके मन घोर निराशा है ..

 

चींटी का सहज कर्म देखो,

चढ़ती है फिर गिर जाती है.

अपनें प्रयास के बल पर ही,

मंजिल वह अपनी पाती है..

 

 स्वप्न की उन्नत परिभाषा,

क्या तुमने कभी विचारी है.

जिनके सपनें न पूर्ण हुए,

दिखती उनकी लाचारी है..

 

है स्वप्न सत्य या वृथा है ये?

कहने को सिर्फ कथा है ये?

उस जन को ही पहचान मिली,

जिसने भव सिन्धु मथा है ये..

 

देखे ना  होते स्वप्न अगर,

क्या व्योम चन्द्र पर जा पाते.

धरती अम्बर की दूरी का ,

क्या कोई पता लगा पाते ..

 

वह स्वप्न शून्य सा लगता जो,

मंजिल से हमें मिला न सके.

वह जीवन भी जीवन क्या है,

सपनों  का फूल खिला न सके..

                                                     शैलेन्द्र कुमार सिंह 'मृदु'

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Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 3, 2012 at 7:34pm

इतने सुन्दर प्रवाह में आपकी यह कविता कही गयी है कि बस क्या कहूँ| भाव पक्ष तो इतना सुदृढ़ है कि बस वाह-वाह ही है| बधाईयां मृदु जी|

Comment by AVINASH S BAGDE on April 3, 2012 at 7:27pm

सपनों पर जीत उसी की है,

जिसके मन में अभिलाषा है.

वह क्या जीतेंगे समर कभी,

जिनके मन घोर निराशा है ..wah Mridu ji...kitani sakaratmak soch hai.

वह स्वप्न शून्य सा लगता जो,

मंजिल से हमें मिला न सके.

वह जीवन भी जीवन क्या है,

सपनों  का फूल खिला न सके..

                                                     शैलेन्द्र कुमार सिंह 'मृदु' ji bahut khoob.


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Comment by rajesh kumari on April 3, 2012 at 5:33pm

vaah ShaIlendra singh aapki rachna padhkar maja aa gaya ,bahut pasand aai. 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 3, 2012 at 4:32pm

snehi mrdu ji, sadar . ye kisi ke liye ho na ho,mere liye prerna dayak hai. hardik abhar, double badhai. maine vidha sikhne ke liye guru (mentor) ki demand ki hai.

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