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सुबह-शाम - वह रोज दिखता । देह पर उसके गन्दे फटे चीथड़े जैसे कपड़े होते । कन्धे से एक झोला नुमा लटक रहा होता । शहर की मुख्य सड़क के बड़े चौराहे पर, जहाँ से सबसे अधिक गाड़ियाँ गुजरतीं अल्ल-सुबह से आधी रात तक वह वहीं दिखता । जैसे ही सिग्नल की बत्ती लाल होती, अपनी इकलौती टांग पर कूद-कूद कर हर रुकने वाली गाड़ी की खिड़की पर हाथ से ठोकता, दयनीय भाव से गिड़गिड़ाता, पेट पर हाथ फिराता और भूखा होने का भाव जताता हुआ गाड़ी वालों से पैसे मांगता । उसकी पसन्द लेकिन बड़ी सेलेक्टेड होती । उसके 'आर्डर आफ प्रेफरेन्स' में छोटी गाड़ियाँ सबसे नीचे होतीं । बड़ी गाड़ियाँ दूसरे नम्बर पर और पहले नम्बर पर होती बड़ी और चमचमाती सी विदेशी गाड़ी जिसमें बैठे होते विदेशी । दूसरे नम्बर पर 'शोफर ड्रिवेन कारें' जिसमें पीछे की सीट पर बैठे होते बड़े सेठ ।

'बिजी आवर्स' उसके 'बिजनस' का 'टेम' होता । देसी सेठ उसे १ या २ रुपये देते पर विदेशी तो कम से कम १० का नोट ही थमाते । फिर सिग्नल हरा होते ही सड़क के किनारे बैठ जाता । वहाँ किसी दूसरे माँगने वाले को वह नहीं आने देता । अनेकों बार दिखा था, दूसरे भिखारी से लड़ता हुआ - गालियाँ देता हुआ और उन्हें वहाँ से भगाता हुआ । ऐसे ही चल रही थी उसकी जिन्दगी और समय गुजर रहा था ।

फिर एक दिन वहाँ से गुजरते हुए जब सिग्नल लाल होने पर गाड़ी रोकने का उपक्रम कर रही थी अचानक एक शोर सा सुना - "मार दिया - मार दिया"। सिग्नल पर रुकने वाली सभी गाड़ी वाले बाहर निकल पड़े - पता करने आगे देखा - वो सड़क पर पडा़ था - सिग्नल लाल होने पर भी चौराहा पार कर जाने की जल्दी में कोई गाड़ी वाला मार गया था । पहले वह सड़क पर गिरा फिर गाड़ी उसे कुचलती हुई चली गई सड़क पर वो पड़ा था - कुचला हुआ - पास ही उसका झोला पड़ा था - झोले से निकल कर कुछ नोट बिखर गए थे ।

अगले दिन अखबार में हेडिंग पढ़ा - "लखपति भिखारी" जिसके झोले से ढाई लाख रुपये निकले ।

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Comment by Neelam Upadhyaya on August 20, 2010 at 10:46am
Bagi ji, Satish ji, Vivek ji, Rana Pratap ji aur Ritesh ji, aap sab ka bahut bahut dhanyawaad mera manobal badhane ke liye..
Comment by ritesh singh on August 19, 2010 at 11:35pm
aapne ek sath metro ki kuchh mahatwapurn pahaluo ko bade achhe dhang se dikhaya hai iss kahani me..
Comment by ritesh singh on August 19, 2010 at 11:32pm
achhi kahani hai neelam ji..

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 19, 2010 at 9:03pm
बड़ी गाड़ियाँ दूसरे नम्बर पर और पहले नम्बर पर होती बड़ी और चमचमाती सी विदेशी गाड़ी जिसमें बैठे होते विदेशी । दूसरे नम्बर पर 'शोफर ड्रिवेन कारें' जिसमें पीछे की सीट पर बैठे होते बड़े सेठ ।

उपरोक्त पंक्तियाँ एक भिखारी की मनोदशा का सुन्दर चित्रण करती है| यह स्थिति केवल एक भिखारी मात्र की ही नहीं है बल्कि यह पंक्तियाँ तो पूरे समुदाय का प्रतिधिनित्व करती है| बड़ी चीज़ के पीछे भागने की मानसिकता हम सब में है|
लघु कथा सुन्दर है और प्रासंगिक भी|
Comment by विवेक मिश्र on August 19, 2010 at 2:25pm
अच्छी लघुकथा है नीलम जी. न अब लोग पहले से रहे और न ही भिखारी. लोगों का दिल जितना ग़रीब होता जा रहा है, भिखारी उतने ही अमीर..
Comment by satish mapatpuri on August 19, 2010 at 11:11am
बहुत -बहुत धन्यवाद नीलम जी, बड़ा ही प्रेरक प्रसंग है.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 18, 2010 at 10:06pm
बहुत ही प्रेरक प्रसंग है नीलम दीदी, पैसा ऐसे ही शोभा की वस्तु बन कर रह जाती है और जाने वाले चले जाते है, किसी ने कहा भी है की कफ़न मे थैलिया नहीं होती, बहुत ही रुचिकर प्रस्तुति, धन्यवाद,

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