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अमावास की रात अब बहुत सुकून देती है
वो भी भादों की अमावास हो तो क्या कहने
उसके अलावा हर रात को
किसी न किसी पहर चाँद आ ही जाता है

वो चेहरा
जिस पर मै नाज़ करता था

जिसे मै बस अपना समझता था
दिख जाता है इस निशापति में

 

 

 

इसकी चांदनी
इसकी झलक
ठेल देती है मुझे अतीत में

 जब मै अपने चाँद को
हाथों में लेकर
देखा करता था
अद्भुत सौंदर्यपूर्ण, दागरहित
लगता,  इसी से सृष्टि दृष्टिगोचर है


एक पूरनमासी,
जो अँधेरा भर गयी मेरे जीवन में
चाँद मेरे सामने था, और भी चमकदार
किन्तु मेरी निशा काली, और भी काली
 वो मेरी हथेलियों से छलक कर,

अन्य अंक का हो गया था
इस गुरुत्व प्रभाव से दृग समंदर में

ज्वारीय तूफ़ान उमड़ पड़ा था

चक्षुपट जब तक रोकें
झरना अपनी सरहदें छोड़ चुका था
मेरे लिए बची थी
उजली रात की काली रजनी
भादों की अमावास

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Comment

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Comment by Brij bhushan choubey on September 27, 2011 at 1:25pm

बहुत ही बढ़िया रचना है आशीष भाई  , बधाई |

Comment by sanjiv verma 'salil' on September 27, 2011 at 7:19am

मुझको यह रचना रुची.

Comment by आशीष यादव on September 14, 2011 at 2:15pm

आदरणीय  बागी जी,
ये आप लोगो की संगत का असर हुआ है|
आप लोगो का आशीर्वाद मिलता रहे बस|

Comment by आशीष यादव on September 14, 2011 at 2:11pm

आदरणीय  satish  सर  ,
कविता  पसंद करने के  लिए  धन्यवाद


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 13, 2011 at 10:27am

आशीष भाई, आपके लेखन में व्यापक सुधार हुआ है, नवहस्ताक्षरों हेतु आप प्रेरणा श्रोत हो सकते है | बधाई स्वीकार करें |

Comment by satish mapatpuri on September 12, 2011 at 8:18pm

वो चेहरा
जिस पर मै नाज़ करता था

जिसे मै बस अपना समझता था
दिख जाता है इस निशापति में

बधाई स्वीकार करें बंधुवर

कृपया ध्यान दे...

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