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क्यों तू ही मन को भाये...

और बहुत कुछ जग में  सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|
आग बुझाता है जब पानी, ये बरखा क्यों अगन लगाए||

जी करता है, पिघल मै जाऊं, तेरे साँसों  की गरमी में|
अजब सुकून मुझे मिलता है तेरे हाथों की नरमी से||
मै तुझमे मिल  जाऊं ऐसे, कोई भी मुझको ढूंढ़ न पाए|
आग बुझाता है जब पानी, ये बरखा क्यों अगन लगाए|
और बहुत कुछ जग में सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|

जब-जब गिरती नभ से बूँदें  , मै पूरा  जल जल जाता हूँ|
जी करता है भष्म  हो जाऊं, पर तुमको  ना  पता हूँ||
तू अंगार  जला दे  मुझको, कहीं पे  कुछ भी छूट न पाए|
और बहुत कुछ जग में  सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|
आग बुझाता है जब पानी, ये बरखा क्यों अगन लगाए||

तड़प-तड़प के रह जाता हूँ, जैसे मछली  जल बिन तरसे|
बहुत सताती हो तुम  मुझको, जब-जब ये बादल है बरसे||
मेरी  प्यास बुझा दे  ऐसे, सारा  बदन ही तर हो जाए |
और बहुत कुछ जग में  सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|
आग बुझाता है जब पानी, ये बरखा क्यों अगन लगाए||

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Comment

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Comment by आशीष यादव on August 3, 2011 at 10:41pm

aadarniy Saurabh Pandey ji, aap sabhi warishth ewam gunijan hamaare guru hai, aap logo ki sangati me rahkar hi hm kuchh naya kar sakte hai. aap ka sujhaw mere liye prasad hai. mai aage ki rachnaao par in baato ka khas dhyaan rakhne ki koshish karunga.

mai ye bhi ummid karunga ki aap log isi tarah se margdarshan karte rahenge.

naman

Comment by आशीष यादव on August 3, 2011 at 10:31pm

aadarniyaa Shanno Aggarwal ji, hauslaaafjai ke liye dhanywaad.

ummid hai ki aage bhi aap logo ka pyaar brabar isi tarah se milta rahega.

Comment by आशीष यादव on August 3, 2011 at 10:29pm

sudhar hetu dhanywaad Bagi Ji.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2011 at 10:23pm

आशीषजी, वयस-विशेष के लिहाज से हुआ यह प्रयास अभी और मशक्कत की मांग करता है.
जाने कबसे कुछ ऐसे ही भाव कुछ ऐसे ही शब्द पाते रहे हैं. उन शब्दों को हमेशा-हमेशा से लिखा जाता रहा है. उन शब्दों को हमेशा-हमेशा से पढ़ा जाता रहा है. इस लिहाज से, कुछ और बिम्बों, कुछ और प्रतीकों और कुछ और गठे शिल्प की अपेक्षा अन्यथा तो नहीं, न?

 

यदि हमारी जागरुकता इस प्रश्न का उत्तर दे सके कि हम क्यों लिखें, हम क्यों लिखते हैं, हमारे लिखने का वस्तुतः प्रयोजन क्या है और हमार इंगित क्या है, तो हमारी कहन में न केवल आवश्यक धार आ जाती है, बल्कि, पाठकों से विलक्षण आत्मीयता बन जाती है, जो किसी रचनाधर्मी का सात्विक अर्जन तथा उसकी अनमोल थाती हुआ करती है.

अपेक्षाओं के साथ शुभकामनाएँ ...

Comment by Shanno Aggarwal on August 3, 2011 at 9:27pm

आशीष, बढ़िया लिखा है...आगे भी खूब लिखते रहो और हम सब आपकी रचनाओं का आनंद लेते रहें. 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 3, 2011 at 8:57pm

आशीष जी वांछित सुधार कर दिया गया है |

Comment by आशीष यादव on August 3, 2011 at 8:08pm

बहुत बहुत धन्यवाद बागी जी|
ये आप जैसे गुनीजनो की संगत का असर है, नहीं तो मै कहा.........
आप लोग अपना स्नेह बनाये रखे, आप लोगो के आशीर्वाद की प्रतीक्षा रहती है|
जी आपने सही पकड़ा, टैपिंग के समय ये गलती मुझसे हो गयी  है| अगर आप सही कर दे तो ..............


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 3, 2011 at 7:10pm

बिरह के अगन में तड़पते हुए प्रेमी के अन्तर्मन को आप ने बहुत ही बढ़िया से उकेरा है, बहुत ही सुंदर रचना बन पड़ी है |

 

जी जरता है भष्म  हो जाऊं, पर तुमको  ना  पता हूँ||

मुझे लग रहा कि शायद आप जरता = करता  लिखना चाह रहे थे |

बधाई आपको |

 

 

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